________________
मानवका सत्य
मोर एक प्रकारसे 'न' कारकी साधना की है। उन्होने 'मै अपनेको कुचल दूँगा ' ऐसा संकल्प ठानकर कुचलनेपर इतना जोर दिया है कि वे भूल गये है कि इसमे 'मैं' पर भी आवश्यक रूपमे जोर पड़ता है । 'मै ' कुचलकर ही रहूँगा, यह ठान ठानकर जो कुचलने में जोर लगाता है, उसका वह जोर असल में 'हं' के सिंचनमे जाता और चहींसे आता है। इस प्रकार, तपस्याद्वारा अपनेको कुचलने में आग्रही होकर भी उल्टे अपने सूक्ष्म अहंको अर्थात् 'मै ' को, सींचा और पोषा जाता है । जो साधना दुनियासे मुँह मोड़कर उस दुनियाकी उपेक्षा और विमुखतापर अवलंबित है वह अन्तमें मूलतः अहंसेवनका ही एक रूप है ।
जो विराट्, जो महामहिम, सब घटनाओं मे घटित हो रहा है, उसकी ओरसे विमुखता धारण करनेसे आत्मैक्य नहीं प्राप्त होगा । चीजें बदल रही है और उनकी ओरसे निस्संवेदन, उनकी ओरसे नितान्त तटस्थ, नितान्त असंलग्न और अप्रभावित रहनेकी साधना आरम्भसे ही निष्फल है । व्यक्ति अपने आपमें पूर्ण नहीं है, तब सम्पूर्णका प्रभाव उसपर क्यों न होगा ! प्रभाव न होने देनेका हठ रखना अपनेको अपूर्ण रखनेका हठ करने जैसा है, जो कि असंभव है । आदमी अपूर्ण रहनेके लिए नहीं है, उसे पूर्णताकी ओर बढ़ते ही रहना है ।
इसलिए जगद्गतिसे उपेक्षा-शील नहीं हुआ जा सकेगा । उससे अप्रभावित भी नही हुआ जा सकेगा । यह तो पहले देख चुके कि अपनेको स्वीकार करके उस जगद्गति से इनकार नही किया जा सकता। इसी भाँति यह भी स्पष्ट हुआ कि उधरसे निगाह हटाकर २४३