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जिज्ञासु ए० अलेक्ज़ेंडरकी f Time, Space and Deity' (काळ, आकाश और देवता ) पुस्तक पढें !
देश-कालके मापदंडोंसे अलिप्त, मात्र आकाशकी, अलग कोई शून्यसत्ता है, ऐसा बौद्ध मानते थे । परंतु सामान्य मनुष्य न यह समझ पाता है न प्रतीत कर सकता है ।
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डायोनिसस नामक ग्रीक दार्शनिक जीवन मे ऊब कर एक पीपेके अंदर औंधा मुँह करके बैठता था । वैसे ही ग्रीक - दर्शनमें दो विचार धाराये चली थीं। एक ओर परमेनाईडस और उसके शिष्य थे जो कहते थे “ सब स्थिर है, सब स्थिर है ।" दूसरी तरफ हेराक्लाईटसके शिष्य थे जो कहते थे "सब परिवर्तनशील है, सत्र परिवर्तनशील है । " ऐसे ही 'गतिके शिकार' यानी गत्यध बौद्धो में शून्यवादी भी थे जो कहते थे, 'क्षणिकम्, क्षणिकम्, सर्वम् क्षणिकम् ' ।
( पृ० २२९ ) कार्ल मार्क्सने हेगेलके ' डायलेक्टिक्स' शब्द में ऐतिहासिक विशेषण जोड़कर अपना एक नया ऐतिहासिक भौतिकवाद ( = Historical materialism ) पैदा किया था। जैनेन्द्र उसके विरुद्ध एक अभौतिक किंतु चिर-प्रस्तुत ऐतिहासिक श्रृंखलाको लक्षित कर रहे हैं ।
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( पृ० २३० ) गणितके उदहरणसे ग्रीक स्थिरतावादी दार्शनिक 'जीनो के बहुत विचित्र तर्ककी याद आ गई। वह कहता है कि, 'समझिए, कोई तीर यहाँसे फेका गया। वह प्रत्येक क्षण देशके प्रत्येक अणुर्भे स्थिर रहेगा,- यह खंडशः देखनेसे पता चलता है; इसलिए, तीर चलता ही नहीं।' 'गति भ्रम है, ' इस तत्वपर जीनो अपने ग़लत एकान्तवादकी वजहसे पहुँचा था ।
साराश, प्रगति- विचारमे जैनेन्द्र, नकारात्मक पद्धति, एकान्तवाद तथा अतीतको भुला देनेकी नीति गलत समझते हैं। ('हंस' में प्र०)
२४ मानवका सत्य
इस लेख से श्रीसुमित्रानंदन पंतकी सर्वोत्तम कविता ' परिवर्तन' की याद आ जाती है। टेनीसनकी पंक्ति Men may come and men may go, but I go on for ever ' और शेलीकी 'बादल' ('cloud') कवितामै ' I change, but never die ' का भी भावार्थ इसी प्रकार है । मनोविज्ञान भी मनकी दो मूल वृत्तियाँ मानी हैं; एक संग्राहक, दूसरी रचना"शील । संग्राहक वृत्तियोका संचय जहाँ विद्यमान् चेतनाके तल-पृष्ठ में गया कि वह मिटता हुआ जान पडता है । पर वास्तवमें मिटता कुछ भी नहीं ।
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