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किया है उससे पाठक सब अशोमैं सहमत न भी हो सके, तो भी, उपन्यासकारसे क्या अभीप्सित है इस बारेमें पाठकको उनसे मत-भेद नहीं हो सकता।
ऑस्कर वाइल्डने झूठसे आतंकित करनेके मोहमें अपने 'मृषाका हास' (Decay of Lying ) नामक निबंधमें कहा है-'यदि उपन्यासकार समझता है कि उसके पात्र जीवनसे लिये गये हैं तो यह गर्वकी नहीं प्रत्युत 'शर्मकी बात है।' रवीन्द्रनाथने अपने 'साहित्य' नामक निबन्ध-संग्रहके 'ऐतिहासिक उपन्यास' शीर्षक लेखमे सत्य और कल्पनाका कहाँ तक मिश्रण उपयुक्त है, इसपर चर्चा की है । यह सब पृ० ५७ के साथ साथ पढ़ा जाय ।
जहाँ क्या लिखूसमस्याका जिक्र है, वहाँ विलियम जेम्सक मनोविज्ञानशास्त्रमे 'स्व-पर-समस्या' नामक अध्यायका आरम्म याद आता है । साथ ही यह कहना होगा कि जैनेन्द्रजीका विज्ञानको पूर्णतः ऑब्जेक्टिव माननेका दावा सब वैज्ञानिकोंके लिए न्यायोचित नहीं है। , एक जगह 'माया' का प्रयोग आया है । शंकरके समान जर्मन दार्शनिक फिन्टेने भी यही कहा था कि 'ससीमका असीमानुबोध सदैव सीमाबद्ध ही होगा,
क्योंकि शान हमारी सीमा है।' वैसे ही जैनेन्द्रजीसे कहा जा सकता है कि श्रद्धा • भी हमारी उसी प्रकारकी सीमा हो सकती है। परंतु वे निष्ठाको छद्म नहीं
समझते, क्योकि उनके मतमें वह हार्दिक निर्धान्ततापर निर्भर है। ' अन्तमै आलोचकके लिए दी हुई नर्म नसीहत बड़ी उपयोगी वस्तु है।
('हंस' में प्रकाशित) ११ जीवन और साहित्य २१ मार्च १९३६ की सायंकालको लाहोरमें राष्ट्रभाषा-प्रचारक संघके अन्तर्गत लाजपतराय हालमें दिया गया भाषण ।
'सत्य अन्तिम नहीं है' (पृ. ६५)। लेनिनने भी एक जगह कहा है'Nothing is final' | यहाँ जैनेन्द्र जो सदा जीवन और साहित्यका लक्ष्य सत्योन्मुखता बताते हैं, वे उसको ' अन्तिम नहीं' कहकर विरोधाभासमें उतरते जान पड़ते हैं। परन्तु उनका मूल तत्त्व 'सत्य अपेक्षाकृत है, यह समझनेपर विरोधामास नहीं रहता।
सुकरातके संबंधमें यूनानकी एक जोगिनने कह दिया था कि वही यूनानका