Book Title: Jainendra ke Vichar
Author(s): Prabhakar Machve
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 198
________________ ३०३ १ साहित्य क्या है? इस लेखमें, साहित्यकी सृष्टिके मूलकी मनोविज्ञानिक आवश्यकता बताकर, साहित्यके स्वरूपको समझाया गया है । साहित्यके आरम्भका मूल तत्व है 'स्व' की विश्वके साथ अभेद अनुभूति । 'अपने स्वयंका अतिक्रमण कर,' आत्मसमर्पणका पाठ शेष विश्वसे सीखकर, तथा अपने क्षुद्रत्वकी अनुभूतिसे त्रस्त होकर विराटताकी अनुभूति जगानेकी जो व्यग्रता मनुष्यम है, उसीसे साहित्य उत्पन्न हुआ है । अतः साहित्य, और कुछ नहीं, इसी सत्योन्मुख प्रगतिशीलता और अनुभूतिशीलताकी अभिव्यक्ति है। लेखक मानव-जीवनकी संभावना द्वित्वसे निर्मित विग्रह, संघर्ष और पुनः समझौतमे मानता है। वैज्ञानिक डार्विन इसीको परिस्थिति के अनुरूप बननेका (adaptation) उत्क्रान्ति-तत्त्व मानता है। मानव-जीवनकी इसी कर्मशीलताको आत्मिक भूमिपर देखें तो, एककी अनेकमे और फिर उन अनेकोकी भा किसी विराट् एकमे मिल जानेकी जो चाह है उसे ही साहित्यकी प्रेरणा मानना होगा । अतः साहित्य जीवनकी प्रश्नमयताका समाधान है, जीवनका अभेदोन्मुख कर्म है। लेखककी भूमिकास दो बातोंका पता चलता है । एक सजीव मुमुक्षुवृत्तिका जो ब्रह्मसूत्रकारके ' अथातो जिज्ञासा' की तरह है। हर वस्तुको जाननेसे पहले 'क्यों ? 'क्या ? 'किसलिए? आदि प्रभोंका मनमें स्वभावतः उठना अपेक्षित है। दूसरी बात है विचार-स्वातंत्र्यमें अटूट विश्वास जिसके लिए रोम्याँ रोला महाशय उत्सुक रहते हैं। लेखक विचारोंको किसी भी प्रकार परिबद्ध या जडवादी बना हुआ नहीं देखना चाहता । उनके मतमें विचारनैश्चित्य बुरा नहीं है पर विचारका स्थिर होकर बॅध रहना तो उसके जीवनके लिए बाधक है। साहित्यकी अनेक परिभाषाओंमेसे जैनेन्द्रकी परिभाषाके साथ दो परिभाषायें तोलनीय हैं और वे यहॉ दी जाती हैं-'साहित्य जीवनकी समीक्षा है, (-मैथ्यू आरनाल्ड ) मनुष्य जातिकी संचित शान-राशिका कोष साहित्य है, (-आ• महावीरप्रसाद द्विवेदी)। ६ मनुष्यकी बुद्धिके साथ अहंकारके जागरणकी कया सांख्यदर्शनमें बहुत अच्छी तरह रूपकद्वारा व्यक्त की गई है। सख्यके अनुसार मुक्त पुरुष शुद्ध

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