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प्रथम मूल-वृत्ति माना है और जो डरसे डरनेका प्रयत्न करते हैं वे निश्चय डरसे बचना चाहते हैं ।
( पृ० २१८ ) श्रद्धाका अर्थ अंध मोह नहीं है । विशुद्ध श्रद्धा निर्भीक होती है । ऐसे ही मीरा कहती थी ' संतन ढिग बैठ बैठ, लोकलाज खोई...। '
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मौतके संबध में ' चढा मन्सूर शूलीपर पुकारा इश्कबाजोको, यहॉ जिस जिसमें हिम्मत हो वही खम ठोककर आये ' किंवा रवीद्रनाथका 'मरण जे दिन आसे दुवारे, की दिन उहारे' या कबीरका ' मरण रे तुहुं मम श्याम समान अथवा उमर खय्यामका फर्राश-अज़लका रूपक, या मैथिलीशरणजीकी ' यशोधरा' का 'मरण सुंदर बन आया री, शरण मेरे मन भाया री' या श्रीमती महादेवी वर्माका ' ओ जीवनके अंतिम पाहुन ' या ' एक भारतीय आत्मा' का ' अरी ओ दो जीवनकी मेल' आदि याद हो आते हैं।
' वासासि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ' गीता के इसी अमर संदेशको हॅसते हॅसते कहते हुए कन्हाई दत्तका वज़न फॉसीके तख्तेपर बढ गया था । यह सब श्रद्वाका फल है । लखके अन्तमे मेरे द्वारा पूछा हुआ प्रश्न लेखके दृष्टिकोणको और भी स्पष्ट कर देता है । ( 'हस' मे प्र० )
२३ प्रगति क्या ?
लखनऊमै काग्रेसके साथ साथ 'प्रोग्रेसिव राईटर्स' या प्रगतिशील लेखक संघकी औरसे एक जलसा हुआ था । उसके द्वारा प्रगतिशीलताके संबंधमे जो गलत धारणायें हम अपने राष्ट्र-जीवनमें पोस रहे हैं उनका विरोध जैनेन्द्रने अपने भाषणमे किया था । वही विचार यहाँ लिखित हैं ।
( पृ० २२५ ) बोज़ान्क्वे जैसे आधुनिक आदर्श-वादी तार्किक (=Idealistic Logicians) 'न' कारका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं मानते ।
कैटने देश और कालको मनुष्यकी बौद्धिक इयत्तायें, शर्तें या ( catagories of understanding ) माना था जिनसे परिज्ञान- सामग्री छन कर आती है और भाव-रूप पकड़ती जाती है । हमारा ज्ञान देश-काल- सीमाओंसे स्वतंत्र नहीं है। किन्तु इसीसे हमें अपने को स्वतंत्र सत्ताधिकारी नहीं मानना चाहिए, जैनेन्द्रका यह तर्क ' कॉम्ट' जैसे स्वीकारवादी (= Positivist ) और 'धूम' जैसे शंकावादीने नहीं माना था। पर वह कथा बारीक है और बहुत है । विशेष