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पद्धतिका आविष्कार किया । जब यह हो गया, तब वह धीमे-धीमे भाषाका महत्त्व भूलने लगा । जो आत्म-दानका साधन था, वह आत्म-वंचनाका वाहन बना । व्यक्ति उसमे भावनासे अधिक अपना अहंकार गुंजारने लगा । जहॉ यह है, वहीं भाषाका व्यभिचार है । वैसा लिखना केवल लिखना है, वह साहित्य नहीं है।
जो हमारे भीतरकी अथवा किसीके भीतरकी रूद्ध वेदनाको, पिंजरबद्ध भावनाओंको, रूप देकर आकाशके प्रकाशमे मुक्त नहीं करता है, जिसमे अपने स्वका सेवन है और दान नहीं है, वह भी साहित्य नहीं है।
साहित्यका लक्षण रस है, रस प्रेम है। प्रेम अहंकारका उत्सर्ग है । इससे साहित्यका लक्षण ही उत्सर्ग है। प्रश्न-लेकिन स्थायी साहित्य कौन-सा ? उच्च साहित्य कौन-सा ?
उत्तर-स्थायी साहित्य वह, जिसमे मानवकी अधिक स्थायी वृत्तियोका समर्पण हो । जिसमें जितना ही रूपका दान है, शरीर सौन्दर्यका दान है, उसका आनद उतना ही अल्पस्थायी है । ऐन्द्रियिकताकी अपीलवाला साहित्य क्षणस्थायी है।
हृदयका उत्सर्ग अधिक स्थायी है । इससे भी ऊपर है अपने सर्व-स्वका उत्सर्ग | जहाँ अपने प्रियको पानेकी कामनाका भी उत्सर्ग है, जहाँ सर्वस्वसमर्पण है, वहॉ सर्वाधिक स्थायी तत्त्व है । उसी तत्त्वके मापसे हम लोग मरणगील अथवा अमर इन सशाओसे साहित्यका, विवेक किया करते हैं।
इसी प्रकार जहाँ हमारे जितने ऊँचे अंशका उत्सर्ग है, वहॉ साहित्यमे उतनी ही उच्चता है।
प्रश्न- क्या साहित्य समयानुसार बदलता रहता है ?
उत्तर-साहित्यका रूप तो समयानुसार बदलेगा ही, पर उसकी आत्मा वही एक और चिरतन है । मानवीय सब कुछ बदलता है । पर मरणशील मानवोके वीचमे एक अमर सत्य भी है । क्षण-क्षणमे जैसे एक निरन्तरता है वैसे ही खण्ड-खण्डमे एक अखण्डता है। उसी निरंतरताकी अभिव्यक्ति क्षणोमे होती है। क्षण स्वयं तो क्षणजीवी ही हैं, पर वे क्षणातीतको भी धारण कर रहे हैं । यही बात साहित्यके मामलेमे भी समझना चाहिए । उसका सब कुछ बदलेगा, वह हर घडी बदल रहा है; पर उसका तत्त्व अपरिवर्तनीय है।
प्रश्न-यहा आपका रूपसे क्या मतलब है ? क्या रूपका मतलब साहित्यके बाह्य कलेवरसे है ? २६०