Book Title: Jainendra ke Vichar
Author(s): Prabhakar Machve
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 180
________________ साहित्य उत्तर --- हॉ, रूपसे मेरा वही भावार्थ है। उसमें भाषा, शैली, मुहावरे, व्यंजनाके और साधन, सब आ जाते हैं। इधर एक नई चीज़ पैदा की जा रही है, जिसको कहते हैं 'टेकनीक ' । वह आत्मासे तोड़कर साहित्यको नियमित शास्त्रका रूप देना चाहती है। उसको भी मैं साहित्यके परिवर्तनीय रूपोंमे गिनता हूँ। प्रश्न --- साहित्यका तो शायद आत्मासे सम्बन्ध है और रहना ही चाहिए; 'फिर यह ' टेकनीक'का साहित्यसे आत्माको अलग करना ठीक है ? उत्तर -- इसको समझनेके लिए आप अपनेको लीजिए। आपका आत्मासे संबंध है या नहीं ? और आप शरीरमें भी हैं या नहीं ? अब अगर मैं यह कहूँ कि जितने अधिक आप आत्मा हैं और जितने अधिक उस आत्माके अविरुद्ध आपका शरीर है उतने ही अधिक आप महान् है तो क्या ऐसा कहने मे कुछ अयथार्थ होगा ! इस जगतमें कुछ प्राणी हैं जो सिरके बालोंको तरह-तरहके लच्छोंमें काढते हैं; अंगोपांगको प्रकार - प्रकारसे सुसज्जित रखते हैं और शरीरको आभूषित रखने में पर्यास चिन्ता व्यय करते हैं । उस शरीर-सज्जाका योग लगभग आत्मासे होता ही नहीं। मैं उसको क्या कहूँ ? क्या मैं यह न कहूँ कि उस साज-सज्जा में जीवनकी शुद्ध कला अभिव्यक्त नहीं होती। वहाँ जो है वह कुछ नकली- सा है । साहित्यमें भी ऐसा हो सकता और हुआ करता है । मूल भावके प्रति अपेक्षाकृत उदासीन होकर हम उसके अंगोपागोंकी परिसजामें लुभा पड़ेंगे तो हम साहित्यके नामपर ठेठ असाहित्यिक हो चलेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। देखिए न आज, नायिकाभेदकी चर्चा में कहॉ तक औचित्य रह गया है ? वह क्या व्यसनकी हदतक नहीं पहुँच गई थी ? साहित्यको एक शास्त्र अथवा एक विद्या बनाना इस खतरेसे खाली नहीं है । आजकल स्पेश्यलाइजेशनकी ( विशेषीकरण की ) प्रवृत्ति बहुत है। हर बातका एक अलग शास्त्र है। इससे फायदा तो होता है। आविष्कारोंकी सूझ इसी पद्धतिसे हाथ आती है। लेकिन जब कि पदार्थ-ज्ञानको इस तरह भेद - विभेदोंमें विभक्त करके देखनेमें कुछ लाभ भी है, तब यह नहीं भूल जाना चाहिए कि वास्तव जीवनमें वैसे खण्ड हैं नहीं । जीवन एक समूचा तत्त्व है। साहित्यके हर विभागमें साहित्यकता उतने ही अंशमें है, जहाँतक कि उसमे जीवन-स्पंदन है । २६१

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