________________
नहीं चाहता । पर, मैं तो देखता हूँ, मुझे अपने ही कारण लिखना नहीं छोड़ना है। क्योंकि जब साहित्यका जिम्मा मेरे ऊपर नहीं है तब मेरी अपनी मुक्ति तो मेरा अपना ही काम है । और कब आत्मव्यक्तीकरण मुक्तिकी राहमें नहीं है ? ' x xxx
____ता. ३१-८-३६ ...'राम-कथा' जैसी चीज़ मैं लिखना विचारता हूँ। लेकिन देखता हूँ कि मेरी राह जैसी चाहिए खुली नहीं है । मैं सोचा करता हूँ कि जब मेरे साथ यह हाल है, तब नवीन लेखकोकी कठिनाइयोका तो क्या पूछना। मैं तो अब पुराना, स्वीकृत भी हो चला हूँ। जो नये हैं, उनके हाथों नवीनता तो और भी कठिनाईसे वे लोग स्वीकार करेगे।............
कठिनाइयाँ जीवनका Salt हैं पर उनको लेकर व्यक्तिमे complexes पैदा होने लगते हैं । वही गड़बड़ है। उनसे बचना ।......
अब तुम्हारे सवाल, जो कभी शात न होंगे। सवाल है ही इसलिए नहीं कि वह शांत होकर सो जाय । वह सिर्फ इसलिए है कि अगले सवालको जन्म दे। यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए । वह दंभी नहीं तो मूढ है जो जताता है कि उसका प्रश्न हल हो गया। वह मुक्तावस्था है और मुक्तावस्था आदर्श है, अर्थात् वह एक ही साथ तर्कका आदि है और अंत है। तर्कके मध्यमे, और जीवनके मध्यमे, आदर्श-स्थितिका स्थान नहीं समझना चाहिए। इसलिए सवालका समाधान नहीं है, मात्र परिणति है । बाहरसे उसका मुख भीतरकी ओर फेरनेसे ऐसा परिणमन सहल होता है। इसलिए यह तो सिद्धान्त रूपसे मान लो कि सवालको फिर भीतरकी ओर मुड़ना होगा और हरेक उत्तर अपने आपमें स्वयं अन्ततः प्रश्नापेक्षी हो रहेगा । प्रश्नोत्तरद्वारा वस्तुतः हम परस्परको ही पावें; अधिककी अपेक्षा न रक्खे।
कला हेतु-प्रधान होती है कि हेतु-शून्य ?
मैं कहूँगा कि कलाकर अपनेमें देखे तो कला हेतु-प्रधान क्यों, हेतुमय होती है । कलाकृतिके मूलमें मात्र न रहकर उसका हेतु तो उस कृतिके शरीरके साथ
आभिन्न रहता है । वह अणु-अणुमें व्याप्त है । कलाकारको दृष्टिसे कभी कला हेतु हीन (अर्थात् , नियमहीन, प्रभाव-हीन) हो सकती है ? और वह तो हेतु-प्राण - है । कलाकारके अस्तित्वका हेतु ही उसकी कलामे ध्वनित, चित्रित होता है। २९४