Book Title: Jainendra ke Vichar
Author(s): Prabhakar Machve
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 191
________________ मैं तो आज कलाको Self-expression की परिभाषामें ही समझनेकी इजाज़त देना चाहता हूँ। यद्यपि इसमें ( समझने में ) खतरा है फिर भी उसी प्रकारकी परिभाषा यथार्थताके अधिक निकट और अंततः अधिक उपयोगी है। . पर, फिर भी वह तनिक भी उच्छृखल नहीं और अधिकसे अधिक दायित्वशील है । वह इसलिए कि जो हमारा भीतरी Self असली Self है वह बाहरी जगतके साथ अभेदात्मक है । हम असलमे विश्वके साथ एकात्म हैं । जितना अपनेको पायेंगे उतना ही, अनिवार्य और सहज रूपमें, विश्वको पायेंगे । इसलिए प्रत्येकका Self-expression, अगर वह अपने साथ सच्चा और जागरूक है, तो प्रेमात्मक ही हो सकता है, विद्वेषात्मक तो हो सकता ही नहीं । साधनामें जो आत्म-वंचना कर जाता है उसकी बात तो मैं करूँ क्या, पर साधक व्यक्तिका Self-expression कभी अहितकर नहीं हो सकता, और आर्टिस्ट साधक है। असल में साधक अनुभव करता है कि वासनाओंमें उसका सच्चा 'स्व' ही नहीं है और वह वासना-रसको अनायास छोड़ता चलता है । वह अतिसहज भावसे दायित्वशीलताकी ओर बढ़ता है और साथ ही विनम्रताकी ओर बढ़ता है । इस भॉति साधक आर्टिस्ट के लिए जरूरी हो जाता है कि वह इस बाहरकी कसौटीपर अपनी साधनाको कसता भी रहे-कि वह उच्छृखल, अविनयशील, अहंमन्य तो नहीं हो रहा है। रोगकी जड़ अहंमन्यता है और आर्टिस्ट अहंमन्यताका खोखलापन आरम्भसे ही देखता है। कला बुद्धिप्रधान हो कि भावप्रधान ? बलासे, कुछ भी हो । व्यक्तित्वमें बुद्धिका खाना कहाँ है और भावका कहाँ ? और जहाँ अपनी आत्माका ही दान है वहाँ बुद्धि अथवा भावको बच निकलनेकी जगह कहाँ है? और इन प्रश्नोंको लेकर क्या कहूँ ? कितना भी कहते जाओ तत्त्व उतना ही गहन रहता है । सत्यकी पुकार तो है कि आदमी सब नाते, सब बन्धन, तोड़ छूट पड़े। तब कुछ समझ मिले तो मिल भी सकती है। अन्यथा सब वृथा है। ___ अपनी ज़िदगीके बारे में क्या कहूँ? क्या कुछ उसमें कहने लायक है ? अभी तो मुझे कुछ पता नहीं |...... मैथिलीशरणजीको मैं क्या मानता हूँ ? हिन्दी कवियों में आज मैं समझो उन्हींको मान पाता हूँ। श्रद्धाके नाते उन्हें ही, समझके नाते यों औरोकी भी मान लेता हूँ। xxx x २९६

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