Book Title: Jainendra ke Vichar
Author(s): Prabhakar Machve
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

View full book text
Previous | Next

Page 190
________________ कुछ पत्रोंके अंश लेकिन बाहरकी दृष्टिसे मैं उसे सहेतुक कैसे मानूं? इस भाँति उसे सहेतुक मानना कलाकृति और कलाकारके बीचमें खाई खोदना जैसा है। मनुष्य और उसका धंधा, ये दो हो सकते हैं। पर मनुष्य और उसकी मनुष्यता (यानी, उसकी भावनाएँ) दो नहीं है। उसका व्यवसाय मनुष्यके साथ प्रयोजन-जन्य, मनुष्यता उसके साथ प्रकृति-गत है। जहाँ मानव अपनी घनिष्ठतामें, अपनी निजतामे, प्रकाशित है, वहाँ उतनी ही कला है । जहाँ अपनेसे अलग रखे हुए हेतुओंकी राहसे वह चलता है, और हेतुओके निर्देशपर रचता है, वहाँ उतनी ही कम कला है । कलामें आत्म-दान है। आत्मदान सबसे बड़ा धर्म है, सबसे बड़ी नीति है, सबसे बड़ा उपकार है, और सबसे बडा सुधार है । अतः कला सुधार, उपकार, नीति और धर्म, सबसे अविरुद्ध है और सबसे अपरिबद्ध है। इस प्रकार कला सत्यकी साधनाका रूप है। वह परम श्रेय है। कला तो निःश्रेयसकी साधिका ही है । जहाँ ऐसा नहीं है वहाँ वह भ्रात है। यह कहिए कि वहॉ कला ही नहीं है। 'बात यह है कि मानवका ज्ञान अपने संबंध बेहद अधूरा है। वह अपनी ही भीतरी प्रेरणाओंको नहीं जानता । यह सही नहीं है कि वह प्रयोजनको ही सामने रखकर चलता या चल सकता है । हेतु उसके भीतर संश्लिष्ट है, inherent है। जिसको अहं विकृतज्ञानमें हेतु मान उठता है, उसके प्रति वह सकाम होता है । वह, इस तरह, हेतु होता ही नहीं। मनमानी लोगोंकी गरजें उनके जीवनोकी वास्तव हेतु नहीं हैं। इस दृष्टिसे हेतुवाद एक बड़ा भारी मायाजाल है। जो जितना महत्पुरुष है वह उतनी ही दृढता और स्पष्टतासे जानता है कि व्यक्तिगत कारणसे कोई बड़ा ही कारण उसे चला रहा है। इतिहासके सब महापुरुष इसके साक्षी हैं। और मैं कहता हूँ कि इस व्यक्तिगत हेतुकी भावनास ऊपर उठनेपर ही सच्चे जीवनका आरंभ और सच्ची कलाका सुजन होता है। हेतुवादी वह संसारी है जो सासारिकतासे ऊँचा उठना नहीं चाहता । (और तुम पूछते हो कि) अगर कला Self-expression ही है तो फिर जीवनस उसका दायित्व क्या है ?

Loading...

Page Navigation
1 ... 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204