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कुछ पत्रोंके अंश
१९-९-३६ {...प्रोफेसरोका अविश्वास मैं समझ सकता हूँ। पर दिलसे अहंकार निकाल डालनेका तरीका ही यह है कि उसे हथेलीपर ले लिया जाय । जिसे निन्दासे डरना नहीं है, वह प्रशसासे डरे ? जो अपवादपर झल्लाते हैं, वे ही पर्यातसे अधिक संकुचित हो सकते हैं। पर वे दोनो एक रोग है-मीति और लालसा ।...
ता. १९-२-३७ । ...जिसके प्रति मनमें प्रशंसा न हो उसके प्रति conscious झुकाव रखना सबी नीति है। 'नीति का मतलब पालिसी नहीं, कर्तव्य भी मैं लेता हूँ। क्योंकि आखिर तो आलोचनाकी जहमें अज्ञान ही है। इसीसे जवाहरलालजीकी आलोचना वैसी लिखी गई जैसी लिखी गई ।...
...शरद समाजके प्रति निर्मम है, पर व्यक्तिके प्रति निर्मम क्यों न हुआ जा सके ? सच्ची निर्ममता मैं तो उसे जाने जो समाजके लिए व्यक्तिको तजे, समाजको ज्ञानके लिए, शानको तथ्यके लिए, और इस प्रकार अपने सब कुछको अखंड-सत्यके लिए।
'अश्रुमती गौतम' क्यो माई ? सीधी बात है कि माई इससे भाई । उसमें tendency मेरे मनकी है । लेकिन एक बात है । आत्म-त्याग एक वस्तु है, आत्म-त्यागकी भावना बिल्कुल दूसरी वस्तु । जहाँ यह भावना प्रधान है वहाँ आदर्श-'वाद' है। और ध्यान रखना चाहिए कि आदर्श-'वाद' भी और वादोंकी तरह थोथा होता है। 'वाद' नहीं चाहिए, स्वयं आदर्श चाहिए।
आत्म-त्यागको एक doctrine एक Dogma. बनाकर व्यक्ति सचमुच स्वार्थी होने में मदद पाता है। तुम्हारी 'अश्रुमती गौतम, मुझे प्रतीत होता है,
आदर्शकी अपनी 'धारणा'से चिपटी रही। आदर्शको ही पकड़ती तो उससे चिपट नहीं पाती । क्योंकि आदर्श, जितने बढ़ते हो, उतना ही स्वयं बढ़ते जाता है। इसलिए आदर्शकी ओर यात्रा करनेवाला व्यक्ति सदा मुक्त रहता है,
उसका स्वभाव खुलता ही जाता है। जब कि आदर्श-'वादी' व्यक्ति अपने । 'स्व'के घेरेको और मजबूत ही बनाता है। पर जैसे 'अ-रूप की आराधना नहीं होती, आराधना स्वयं अ-रूपको स्वरूप दे देती है, वैसे ही जाने-अनजाने
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