Book Title: Jainendra ke Vichar
Author(s): Prabhakar Machve
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 186
________________ कुछ पत्रोंके अंश भाई भाचवेळी न कि किताबख जीवनकी १-८-३५ पत्र मिला।...... मेरे बारे में यह बात आप जान लें कि किताबोंमें मेरी पहुँच कम है । इस लिए मेरा जवाब थोड़ा और सादा ही हो सकता है। जीवनसे कलाको तोडकर मैं नहीं देख पाता । सत्याभिमुख जीवनकी अभिव्यक्ति कला है । शब्दाकित अभिव्यक्ति साहित्य है। आप देखें, जीवनके साथ 'सत्याभिमुख विशेषण मैंने लगाया है। अर्थात् जो इम है, वही हमारा जीवन नहीं है । जो होना चाहते हैं, हमारा वास्तव जीवन तो वही है । जीवन एक अभिलाषा है । जब कलाके संबंधमे 'जीवन' शब्दका उपयोग करता हूँ तब उसे आप उस चिर-अभिलाषाकी परिभाषामें ही समझें। उस अर्थमें समझनेसे जीवन और कलाका विरोध, या Parallelism उड़ जाता है। क्या जो होना चाहते हैं, वही हम हैं ? क्या कमी भी वैसे हो सकेंगे? स्पष्टतः, नहीं। किन्तु इसका क्या कभी भी यह मतलब है कि aspiration व्यर्थ है ? यह मतलब करना तो सारी गति और चेयको मिटा देना है। आदर्श और व्यवहारमें अंतर है । वह अंतर एक दृष्टिसे अनंतकालतक रहेगा। उस दृष्टिसे वह अनुलंघनीय भी है। किंतु इसीलिए तो उस अंतरको कम करना और भी अनिवार्य है। आदर्श अप्राप्य है, क्या इसीसे उसके साथ एकाकारता पानेके दायित्वसे हमारी मुक्ति हो जाती है। इसीसे कलाको 'कला के ही क्षेत्रकी वस्तु न मानने देकर उसे जीवन में उतारनेकी वस्तु कहते रहना होता है। जो कला वास्तवसे असम्बद्ध होकर ही जी सकती है, वास्तवके स्पर्शसे जो सर्वथा छिन-भिन्न हो रहती है, मेरे निकट तो वह हस्व-प्राण है। मैं उसे गिनतीमे नहीं लाता । कला अपने भीतर मरी श्रद्धाकी शक्तिसे 'वास्तव 'को संस्कृत करनेके लिए है, उससे परास्त होनेके लिए नहीं। २९१

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