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केवल अपने ऊपर उसे केन्द्रित करके स्वयं अप्रभावित बने रहने में भी सिद्धि नहीं है ।
परिवर्तनोंको संपन्न
तब यही मार्ग है ( लाचारीका नहीं, मोक्षका ) कि हम घटनाओं को केवल स्वीकार ही न करें, प्रत्युत उन्हें स्वयं घटित करें । क्या वास्तवके साथ ऐक्य पाना ही हमारा लक्ष्य और वही हमारी सिद्धि नही है ? वह वास्तव ही घटनाओं में घटित बनकर व्यक्त हो रहा है । तब हमारा अपना व्यक्तीकरण भी इन घटनाओं में ही होगा। हम कर्म करेंगे, यह जानकर नहीं कि वैसा किये विना गुज़ारा नहीं; यह मानकर भी नहीं कि वैसा हमे करना चाहिए: बल्कि यह अनुभव करते हुए कर्म करेंगे कि हम उसके स्रष्टा हैं। परिवर्तनको स्वीकार भर करने के लिए हम नहीं हैं। उन 'करनेके लिए भी हम है । विकास हो और वह हाथ में लेकर विकसित कर जाय, इसकी प्रतीक्षा करते नहीं बैठना होगा । हम स्वयं विकासमे प्रबुद्ध होगे और उसे सिद्ध करेंगे। हम स्रष्टाकी प्रकृतिके समभागी है। हम केवल उपादान, उपकरण ही तो नहीं है। हम कर्ता भी है । चीजें बदलती है, वे सदा बदलती रही हैं, यहाँतक ही मनुष्यका सत्य नहीं है । मनुष्यका सत्य यह भी है कि हम चीज़ोंको बदलते है, हम उन्हें बदलते रहेंगे । मनुष्य परिवर्तनीय है, इसीलिए तो कि वह परिवर्तनकारी है । मनुष्य विकासशील है, क्योकि वह विकासशाली है । वह कर्मवेष्टित क्यों है ? क्योकि वह कर्मका स्रष्टा भी है।
विकास हमें अपने
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