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मानवका सत्य
और बस । अहङ्कारसे छुट्टी पानेसे आगे हम उस महा सत्ताके बहाने अपनेमे निराशा नहीं ला सकते, हम निराशामें प्रमाद-प्रस्त नहीं बन सकते, अनुत्तरदायी नहीं बन सकते, भाग्य-वादी नहीं बन सकते। यह भी एक प्रकारका अहंकार है। प्रमाद स्वार्थ है, उच्छंखलता भी स्वार्थ है । हम जब देखने लगें कि हमारा अहङ्कार एक प्रकारसे हमारी जड़ता ही है, अज्ञान है, माया है, तब हम निराशामें भी पड़ सकनेके लिए खाली नहीं रहते। निराशा एक विलास है, वह एक व्यसन है, नशा है। नशीली चीज़ कड़वी होती है, फिर भी लोग उसका रस चूसते हैं। यही बात निराशामें है। निराशा सुखप्रद नहीं है। फिर भी लोग हैं जो उसके दुखकी चुस्की लेते रहनेमें कुछ सुखकी झोंकका अनुभव करते हैं।
जिसने इस महासत्यको पकड़ा कि मैं नहीं हूँ, मैं केवल अव्यतके व्यक्तीकरणके लिए हूँ, वह भाग्यके हाथमे अपनेको छोड़कर भी निरन्तर कर्मशील बनता है। वह इस बातको नहीं भूल सकता कि कर्म उसका स्वभाव है और समस्तका वह अङ्ग है। वह (साधारण अर्थोमे ) सुखकी खोज नहीं कर करता, सत्यकी खोज करता है। उसे वास्तवके साथ अभिन्नता चाहिए। इसी अभिन्नताकी साधनामे, इस अत्यन्त वास्तवके साथ एकता पानेके रास्तेमें जो कुछ भी विपत्ति उसपर आवे, जो ख़तरा, जो दुःख उसे उठाना पड़े, वह सब हर्षसे स्वीकार करता है। अपना सुख-दुख तो उसके लिए कुछ होता ही नहीं । इसलिए, उसका सुख समस्तताके साथ अविरोधी सुख होता है। इस जगत्में विलास दूसरेकी पीड़ापर परिपुष्ट होता हुआ देख पड़ता है। वैसा विलास-मय सुख निरहंकारी मानवके लिए अत्यन्त त्याज्य बनता है।
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करता है। उसे वास्तवक के साथ एकता पानसे उठाना पड़े,