Book Title: Jainendra ke Vichar
Author(s): Prabhakar Machve
Publisher: Hindi Granthratna Karyalaya

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Page 166
________________ हम परिमित प्राणी है । जान पड़ता है, इतिहासके भीतर भी हमी है। हमी वह है। आदिम मनुष्यने जो भोगा और जो किया, उसके बाद प्राग-ऐतिहासिक और ऐतिहासिक युगोंके दीर्घकालमें भी जो उसने भोगा, किया और पाया, उसकी वह तमाम अनुभूति, तमाम उपलब्धि, तमाम ज्ञान और उसकी वह समस्त साधना आज हमारे जीवनमे बजि-रूपसे व्याप्त है । उसीके फलस्वरूप हम आज है। नितान्त एकाकी स्वतन्त्र हम अपने-आपमे क्या हैं ? इस दृष्टिसे चाहे हम परिमित हो, फिर भी अनन्त है। हम कालसे भी नहीं बँधे है और न प्रान्तसे ही । शत-सहस्र शताब्दियों हममे मुखरित होती है और हमारा दायित्व बड़ा है। क्या हम भावी बदल सकते है ? क्या हम अपने भी मालिक हैं ! क्या हम अपने-आपमे भाग्य-बद्ध भी नहीं हैं ? क्या हमको माध्यम बनाकर कुछ और महत्तत्त्व नही व्यक्त हो रहा है जो हमसे अतीत है ? हमारा समस्त यत्न अन्ततः किस मूल्यका हो सकता है ! अनन्तकाल और अगाध विस्तारके इस ब्रह्माण्डमें एक व्यक्तिकी क्या हैसियत है ? ___ ऊपरकी बात कही जा सकती है और उसका कोई खण्डन भी नहीं हो सकता । वह सत्य ही है। उस महा-सत्यके तले हमें विनीत ही वन जाना चाहिए । जब वह है, तब मै कहाँ ? तब अहङ्कार कैसा ? जब हम (अपने आपके) सचमुच कुछ भी नहीं है, तब और किसको क्षुद्र माने? नीच किसको माने ? तुच्छ किसको जानें! हम उस महासत्यकी अनुभूतिके तले अपनेको शून्य ही मान रखनेका तो अभ्यास कर सकते है। २४०

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