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हिन्दी और हिदुस्तान
रहा है उसी एक 'से' और उसी एक 'में' हो रहा है । और वह एक है, 'परमात्मा' । लेकिन, उस बातको आप मेरी सलज्ज अपराधस्वीकृति, Confession, ही मानिए । उसमें, हो सकता है कि, न कुछ भावार्थ मिले, न चरितार्थ दीखे । हो सकता है कि वह प्रतीति मेरी असमर्थताकी प्रतीक हो । लेकिन, मै आरम्भमे ही कह चुका हूँ कि ठीक ठीक मै कुछ जानता नहीं हूँ ।
साहित्य क्यो, क्या, किसके लिए ? - इसकी प्रामाणिक सूचना मै कहाँसे लाकर दूँ ? और जहाँसे लाकर दूँ वहाँसे आप क्या स्वयं नहीं ले सकते जो मेरा अहसान बर्दाश्त करें ? कैसे लिखा जाता है, इस वारेमे कहनेको मेरे पास अपना अनुभव और उदाहरण ही हो सकता है। यह कौन जाने कि किस हद तक वह आपके मनोनुकूल होगा, या प्रामाणिक अथवा विश्वसनीय होगा ।
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आजकल मानवका समस्त ज्ञान वैज्ञानिक बने तब ठीक समझा जाता है । इस तरह, वह सुनिश्चित और सुप्राप्त बनता है और तभी
प्रयोजनीय बनता है । सो, अव्वल तो ज्ञान ही मेरे पास नहीं, और जो निजी व्यक्तिगत कुछ बोध-सा है वह वैज्ञानिक तो है ही नहीं । इसलिए, उसे माप सहज अमान्य ठहरा दे तो मुझे कुछ आपत्ति न होगी ।
ज़िन्दगीका मन्त्र क्या है ? मेरे ख्यालमे वह मंत्र है, प्रेम । सूरज-धरतीको, घरती - चादको, शत्रु- शत्रुको, पिता-पुत्रको, जन्ममृत्युको, 'मै' – 'तूको,' स्त्री- पुरुषको, परस्पराकर्षण में कौन थाम रहा है ? वही प्रेम । विराट्की शाश्वत अनन्त महिमा और हमारी क्षराजीवी अपार लघुता, जो इन दोनोंको परस्पर सह्य और सम्भव बनाता है
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