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वह सैद्धान्तिक गहरी वातोपर पहले विचार करें । लेकिन, इन मुंशीजीको मैं क्या कहूँ? क्या मैंने देखा नहीं कि किरायेकी वातपर सदा यह मुंशीजी ही सामने हुए हैं, और रायसाहबसे जब जब साक्षात् होता है, तब इस प्रकारकी तुच्छता उनके आस पास भी नहीं देखनेमें आती और वह गम्भीर मानसिक और आध्यात्मिक चर्चा ही करते है।
हुक्मकी प्रार्थना और प्रतीक्षा करते हुए मुंशीजीको सामने रहने देकर मैं कुछ और जरूरी बातें सोचने लगा। मैने सोचा कि
मैं जानता हूँ कि मुझे काम करना चाहिए और मैं काम करता हूँ। सात घण्टे हर एकको काम करना चाहिए । मै साढ़े सात घण्टे करता हूँ। जो काम करता हूँ वह उपयोगी है। वह बहुत उपयोगी है। वह काम समाजका एक जरूरी और बड़ी जिम्मेदारीका काम है। क्या मैं स्वार्थ-बुद्धिसे काम करता हूँ? नहीं, स्वार्थ-भावनासे नही करता । क्या मेरे कामकी बाजार-दर इतनी नहीं है कि मै जरूरी हवा, जरूरी प्रकाश और जरूरी खुराक पाकर जरूरी कुनबा और जरूरी सामाजिकता और जरूरी टिमागियत निवाह सकें ! शायद नहीं । पर ऐसा क्यों नहीं है ! और ऐसा नहीं है, तो इसमें मेरा क्या अपराध है?
अपने कामको मैंने व्यापारका रूप नहीं दिया है । आजका व्यापार शोपण है। मैं शोपक नहीं होना चाहता। __ इसी दुनिया, पर दूसरी जगह, मेरे जैसे कामकी बहुत कीमत और कदर भी है । मेरे पास अगर मकान नहीं है और मकानमें १६८