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हुआ धन वैसा ही मुर्दा है जैसे गड़ा हुआ आदमी । वह बीज नहीं है कि धरतीमें गड़कर उगे। गाइनेसे रुपयेकी आब बिगड़ जाती है, फिर भी, उसमे प्रत्युत्पादनकी शक्ति है बीजसे कहीं अधिक,यद्यपि वह भिन्न प्रकारकी उत्पादन शक्ति है । उस शक्तिको कुण्ठित करनेसे आदमी समाजका अलाम करता है। खैर, रुपयेको गाड़कर निकम्मा बना देने या उसे कैदखानेमें बन्दी करके डाल देनेकी प्रवृत्ति अब कम है। रुपया वह है कि जमा रहने-भरसे सूद लाता है। सूद वह इसलिए लाता है कि कुछ और लोग उस रुपयेको गति-शील रखते हैं, वे उससे मुनाफा उठाते है। उसी गति-शीलताके मुनाफेका कुछ हिस्सा सूद कहलाता है।
रुपया गतिशील होनेसे ही जीवनोपयोगी है। वह हस्तान्तरित होता रहता है। वह हाथमें आता है तो हाथसे निकलकर जायगा भी। अगर हमारे जीवनको बढ़ना है तो उस रुपयेको भी व्यय होते रहना है।
लोकन उस व्ययमें हमने ऊपर देखा कि कुछ तो मात्र 'व्यय है, कुछ आगे बढ़कर 'पूँजी हो जाता है,-'इन्वेस्टमेण्ट' हो जाता है। समझना होगा कि सो कैसे हो जाता है!
कल्पना कीजिए कि दिवाली आनेवाली है और अपनी अपनी माँसे राम और श्यामको एक-एक रुपया मिला है। राम अपने रुपयेके कुछ खिलौने, कुछ तसवीरें और कुछ फुलझड़ी वगैरह ले आया है । श्याम अपने बारह आनेकी तो ऐसी ही चीजें लेता है पर चार आनेके वह रङ्गीन पतले कागज लेता है। उसने शहरमें कन्दील बिकते देखे हैं। उसके पिताने घरमें पिछले साल एक कन्दील