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प्रश्नोत्तर प्रश्न निर्मोह और अबुद्धिवादका साथ कैसा ?
मोह यह हार्दिक विकार है । श्रद्धा भी हृदयका वैसा ही विकार है । अतः जहाँ आप निर्मोह चाहेंगे, वहाँ विवेक बुद्धि आयेगी ही।
और तव उसके आते ही भोली भक्तकी भावना-जिसमें हृदय ही अधिक हो और बुद्धि कम-~-कैसे पाई जा सकती है ?
उत्तर- इस प्रश्नमें कुछ गलतफहमी है। पहले उसका दूर करना आवश्यक है।
अबुद्धिवाद शब्दको जो मैने एक आध जगह प्रयोग किया है, उसका अभिप्राय यह कदापि नहीं कि बुद्धिके मुकाबलेमें किसी अबुद्धिका वाद मै चाहता हूँ। वुद्धिके मै विरुद्ध नहीं। किन्तु बुद्धिवादवाली बुद्धि तो निरी अबुद्धि है। अर्थात्, बुद्धिवादका ही नामकरण मैंने अबुद्धिवाद किया है। जिससे मेरा अभिप्राय है कि-Rationalism is an irrationalism | वादको कंधेपर विठाकर जो बुद्धि चलती है वह मेरी दृष्टिसे अबुद्धि है। इसलिए बुद्धिवादको ही मैं निरा अबुद्धिवाद कहता हूँ। . .
मेरे इन सफाईके शब्दोंके लिहाजसे आप देखेंगे कि ऊपरका प्रश्न फिर ठहरता ही नहीं। ___ मोह हार्दिक विकार है, लेकिन श्रद्धा वैसा एक विकार इस लिए नहीं है कि वह विवेक-विपरीत नहीं है। वह श्रद्धा तो विवेकका पूरक है । अतः श्रद्धा विकार नहीं, संस्कार है।
वेशक जहाँ निर्मोह है वहाँ विवेक बुद्धि तो पहलेसे है ही। जिसको भक्तकी भोली भावना कहो, उस भावनाका भोलापन विवेकबुद्धिके योगसे दहक कर स्फुलिंगके समान तेजस्वी हो जाता है। उसमें हृदय और बुद्धिके कम अधिक होनेका प्रश्न ही नहीं रहता, क्योंकि उस श्रद्धा वे दोनों पूरेके पूरे समाये रहते हैं। २२२