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निरा अबुद्धिवाद
रखकर वह हार्दिकतापूर्वक मर गया। असल में सब बात मरते समय सहज भाव रखनेकी है । जो जितना निर्भय है, सरल भावसे मर सकता है, वह उतना ही सफल है। लेकिन स्पष्ट है कि इसके लिए बुद्धिकी निगाहको बाँधकर कहीं न कहीं गाड़ लेना जरूरी है।
हाँ, जरूर गाड़ लेना जरूरी है । पर इसमें और शुतुरमुर्गकी क्रियामे अन्तर हो सकता है। एक भय-जन्य है तो दूसरी श्रद्धाप्रेरित हो सकती है ।
एक प्रकारके मतवादी है जो तर्कपूर्वक सिद्ध करते है कि आँख चारों ओर देखनेके लिए है । बुद्धि स्वतन्त्र है । व्यक्तित्व चौमुखी है । श्रद्धाअन्धी वस्तु है । किसी भी अज्ञेय वस्तुका पल्ला पकड़कर नहीं बैठना होगा । सब कुछ तोलना होगा । ये लोग डिजाइनर है और तरह-तरहकी साइन्सोंके चौखूँटे नकशे बनाकर दिया करते है ।
ऐसे लोग ज्ञान-विज्ञानकी बहुत छान-बीन करते देखे जाते है । उनका जीवन विवेचन-शील, संभ्रांत और सुखमय होता है। ये लोग सब बातोको तोलते, जाँचते और परखते हैं । किसीपर श्रद्धा नहीं रखते, किसीपर फिर अश्रद्धा भी नहीं रखते । उदार, संयत, सीधे-सादे रूढ़िपर चलनेवाले जीव ये होते है ।
लेकिन मौतका इन्हें बड़ा भय होता है। दूसरेकी भी और अपनी भी मौतका। मौतकी व्याख्या तटस्थ भावसे ये करते हैं; पर उसकी ओर निगाह नहीं उठने देते । ये श्रद्धाके कायल नहीं। इससे इनकी जीवन-नीति भयके आधारपर खड़ी होती है । भयमेंसे नियम-कानून, पुलिस-फौज, अदालत-जेल, शासन- अनुशासन, अस्त्र-शस्त्र आदि चुनते है । भय अद्भुत रूपमें सहनशील है । वह जबर्दस्त शक्तिको
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