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निरा अ-बुद्धिवाद
और शुतुरमुर्गके निकट जो दृश्य है, उतना ही ज्ञात है, उतना ही ज्ञेय है । अतः जितना दीखता है, उसके अतिरिक्त कुछ और है ही नहीं, यह होगा उस मानवरूपी शुतुरमुर्गका जीवन-सिद्धान्त । तदनुरूप उसकी जीवन-नीति भी यह हो जाती है कि-'जो अनिष्ट है, उसे मिटानेका सीधा उपाय है उसे न देखना । अनिष्टपर इसी भाँति विजय होगी । अनिष्ट यों ही असत् होगा । इस लिए
और कुछ करनेकी आवश्यकता नहीं है, जब भय हो अथवा सन्देह हो, तब आँख मीच लो । भयकी आशंका और सन्देहकी शंकासे इस भाँति मुक्ति प्राप्त होगी।' ___ अब, क्या मानव-बुद्धि-द्वारा-निर्मित तर्क-सम्मत नीति भी लगभग इसी प्रकारकी नहीं है ?
उस नीतिपर चलनेसे शुतुरमुर्ग शत्रुसे नहीं बच पाता । शत्रुको उलटे अपनी ओरसे वह सुविधा पहुँचाता है और बेमौत मर जाता है । अतः कहा जा सकता है कि वह नीति विफल है, भ्रांत है। हम भी खुद ऐसा मानते हैं। __ पर उस नीतिकी ( जो आज मानव-नीति भी हो रही है) वकालतमें यह कहा जा सकता है कि मरना तो सबको है। कौन नहीं मरता ? असल दुश्मन मौत है। किसी औरको दुश्मन भला क्यों मानें । कोई हमें क्या मारेगा। बात तो यह है, कि मौत हमें मारती है। जिसे दुश्मन मानते हो वह तो यम देवताका साधन है, वाहन है । असलमें तो भाग्यके पंजेमें सब हैं । यम उसी भाग्यका प्रहरी है। उसके आघातसे तो बचकर भी बचना नही है । मौत हमें आ दबोचेगी ही । प्रश्न उससे बचनेका नहीं है, और मुँह
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