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होगा, कि हम उसे जानें। यह बात साफ है । इसको समझनेसे कोई इनकार नहीं कर सकता, न कोई दार्शनिक इस बातकी मान्यतासे बाहर पहुँच सकता है ।
जब ऐसा है, जब हमसे अलग होकर सचाई कुछ है ही नहीं, अथवा है तो नहीं जैसी है, तो यह अप्रामाण्य बनता है कि हम शुतुरमुर्गको गलत और अपनेको ठीक कहें ।
शुतुरमुर्गको तो शायद हम ठीक न कह सकेंगे । उसको ठीक कहने के लिए हमें अपनेको इनकार करना होगा । हम तो दोनों को देखते हैं न - शुतुरमुर्गको भी, उसके शत्रुको भी— इस लिए रेतमें सिर दबाकर शत्रुसे बचनेकी शुतुरमुर्गकी चेष्टाको हम सही कैसे कह सकते हैं ? और शतुरमुर्गके गलत होनेका प्रमाण उसीके हकमें यह भी है कि शत्रु आकर उसे दबोच लेता है । इस लिए यह तो असंभव है कि शुतुरमुर्ग ठीक हो । लेकिन जब वह ठीक नहीं है तब हम भी ठीक कैसे हो सकते हैं, यह विचारणीय है ।
हो सकता है कि हमारी हालत शुतुरमुर्गसे इतनी ही भिन्न हो, कि हम शुतुरमुर्ग न होकर आदमी हैं । अन्यथा कैसे कहें, कि यथार्थ में हम दोनोंमें बुद्धिकी अपेक्षा खासी समता नहीं है ।
मान लिया जाय कि शुतुरमुर्ग बुद्धिसे शुतुरमुर्ग है, लेकिन बात - चीत आदमी है । तब क्या वह हमको मूर्ख नहीं समझेगा ? ' जो दीखता है, उतना ही है। जो नहीं दीखता है, वह इसीलिए तो नही दीखता कि नहीं है ' -- शुतुरमुर्गके ज्ञानका तल यह है । हम मानव उसे थोथे अज्ञेयवादी, अदृष्टवादी जान पड़ेंगे । जो अज्ञात है, उसके होनेमें क्या प्रयोजन ? वह न हुआ भला । वह नहीं ही है ।
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