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सम्पत्तिकी बाढ़ रुकेगी । खून रुकनेसे रोग होगा और फिर अनेक उत्पातों का विस्फोट होगा ।
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हमें अपने व्यवहारमें व्यक्तिगत भाषासे क्रमशः ऊँचे उठते जाना होगा । हम कहेंगे सम्पत्ति व्यक्तिकी नहीं, वह सहयोग समितियोंकी है। कहेंगे, वह श्रमियोंकी है | कहेंगे, वह समस्त समाजकी है, जो समाज कि राष्ट्र-सभामें प्रतिबिम्बित है । कहेंगे कि वह राष्ट्रकी है। आगे कहेंगे कि राष्ट्र क्यों, वह समस्त मानवताकी है । इसी भाँति 'हम बढ़ते जायँगे । अन्त तक हम देखते जायेंगे कि बढ़नेकी अब भी गुञ्जाइश है । किन्तु, ध्यान रहे कि निराशाका यहाँ काम नहीं, व्यग्रताका भी यहाँ काम नहीं । हम पानेके लिए तैयार रहें कि यद्यपि बुद्धिसङ्गत (rational ) आदर्शमें बढ़-चढ़कर हम मानवतासे आगे विश्व-समष्टि तक पहुँच गये हों, तब भी सङ्घर्ष बना ही है । बात यह है कि समष्टि कहनेसे व्यष्टि मिटता नहीं है । व्यक्ति भी है । वह अपने निजमें अपनेको सत्ता अनुभव करता है । समष्टि हो, पर वह भी है। उसे इनकार करोगे, तो वह समष्टिको इनकार कर उठेगा । चाहे उसे इसमें मिटना पड़े, पर वह स्वयं अपनेको कैसे न माने ? ऐसी जगह मालूम होगा कि व्यक्तित्वकी धारणाको ब्रह्माण्डमें भी चाहे हम व्याप्त देखें, पर पिण्डमें भी उसे देखना होगा । और, उस समय हम विश्व-समष्टिके शब्दोंसे भी असन्तुष्ट होकर कहेंगे कि जो है, सव परमात्माका है । सब परमात्मा है । यह मानकर व्यक्ति अपनी सत्तामे सिद्ध भी बनता है और वह सत्ता समष्टिके भीतर असिद्ध भी हो जाती है । विचारकी दृष्टिसे तो हम देख ही लें कि इसके बिना समन्वय नही है । इसके इधर-उधर समाधान भी कहीं
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