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निरा अ-बुद्धिवाद
सुना जाता है कि शुतुरमुर्ग जो अफ्रीकाके रेतीले मैदानोंमें होता है विचित्र प्राणी है। वह जब शत्रुकी टोह पाता है तो और कुछ करता नहीं, रेतमें मुँह दुबका लेता है । शत्रु फिर निरापद भावसे माकर उसका काम तमाम कर देता है। वह जानवर शुतुरमुर्ग इस भाँति शांतिपूर्वक मरता है ।
हम लोग शायद उसकी मरनेकी पद्धतिसे सहमत नहीं हैं। उसका मरना हमारे मनसे कोई ग़लत बात नहीं है । उसकी बेवकूफीकी सज़ा ही समझिए जो मौतके रूपमें उसे मिलती है। ऐसे वह न मरे तो अचरज । मरना तो उसका उचित ही है । और हम मनुष्य जानते है कि शुतुरमुर्ग मूर्ख प्राणी है ।
मूर्ख तो वह हो; लेकिन इतना कहकर बातको हम टालें नहीं । उसे मूर्ख कह देकर आदमी शायद स्वयं अपने को कुछ बुद्धिमान् लग आता हो। पर हमें इसमें सन्देह है कि दूसरेको मूर्ख कहने के आधारपर खुद बुद्धिमान् बननेका ढंग ठीक है । तिसपर वह शुतुरमुर्ग क्यों मूर्ख है ? और हम क्यों नहीं हैं ? और मूर्ख होनेमें सुभीता यदि हो तो फिर हरज क्या है ? – आदि बातें सोचनेकी है ।
घरमें एक छोटी बच्ची है । नाम अभी है मुन्नी । सदा खेलती रहती है। एक खेल उसे प्रिय है । वह मुन्नी किसी सूखती हुई धोती या बक्स या कुर्सी के पीछे होकर मुँह ढककर चिल्लाएगी'अम्माँ ! सुन्नीको ढूँढो ।' अगर अम्माँ एक बारमें ध्यान नहीं देगी
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