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दूर और पास
वस्तुओंका मूल्य भी इसपर निर्भर करता है कि हम उनसे कितने पास अथवा कितने दूर है। क्योकि, दूरी और निकटता निश्चित मानके तत्त्व नहीं है, इसीसे किसी वस्तुका एक ही मूल्य नहीं है। वह मूल्य अलग अलग लोगोंकी निगाहमें अलग अलग है और देश-कालके अनुसार घटता-बढ़ता रहता है। __दूरकी बड़ी चीज़ छोटी लगती है, पासकी छोटी बड़ी । आँखके आगे दो उँगली खड़ी कर ले तो सूरज ढंक जाता है । पर सूरज बहुत बड़ा है, दो उँगलियोंकी चौड़ाई उसके सामने भला क्या है ? फिर भी, पास होनेसे मेरे हिसाबसे दो उँगलियाँ सूरजसे बड़ी बन जाती है और सूरजको देखनेसे रोक सकती हैं। पासका पेड़ बड़ा दीखता है, दूरका पहाड़ उभरी काली लकीर-सा दीखता है। __ परिणाम निकला कि बाहरी छुट-बड़पन कोई निश्चित मानका तत्त्व नहीं है, वह प्रयोजनाश्रित तथ्य ही है। ___ इसलिए, असल प्रश्न यह हो रहता है कि हमारी तर-तमताकी शक्ति कितनी है ? आँखकी दृष्टिकी वह शक्ति तो परिमित ही है, लेकिन मनकी दृष्टिकी शक्तिका परिमाण वैसा बँधा नहीं है। बह उत्तरोत्तर बढ़ाया जा सकता है। मनकी दृष्टि-शक्तिका नाम है, कल्पना। ___ जो नहीं दीखता, कल्पना उसे भी देखती है। जो पास है, कल्पना उसे भी दूर बना सकती है। जो बहुत दूर है, कल्पना उसे भी खींचकर प्रत्यक्ष कर देती है। कल्पना दूरबीनकी भाँति बड़ी उपयोगी चीज़ है । पर उसके
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