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कोरा व्यय अथवा अपव्यय है और उतना ही कम अर्जनीय, इन्वेस्टमेंट अथवा सद्व्यय है । अर्थात् प्रतिफलकी दृष्टिसे अपने व्ययमें जितनी दूरका हमारा नाता है, उतना ही उस व्ययको हम अर्जनीय या इन्वेस्टमेण्टका रूप देते हैं।
इस बात से अगले परिणामपर पहुँचे, इससे पहले यह जरूरी है कि इसको ही खुलासा करके समझें ।
हमारे पास रुपया है, जो कि हमारे पास रहनेके लिए नहीं है। वह अपने चक्करपर है । हमारे पास वह इसलिए है कि हमारी जरूरतोंको मिटाने में साधन बनने के बाद हममें अतिरिक्त स्फूर्ति डालने और हमें श्रम प्रवृत्त करनेमे सहयोगी बने । हम जीये और कार्य करें। इस जीवन - कार्यकी प्रक्रियामें ही रुपयेकी गतिशीलता घटित और सार्थक होती है।
स्पष्ट है कि रुपया असल अर्थमें किसीका नहीं हो सकता । वह चाँदीका है । वह प्रतीक है । उसका बँधा मान है । वह एक निश्चित सामर्थ्यका द्योतक है। सामर्थ्य, याने इनर्जी (energy)। जब तक वह रुपया इनर्जीका उत्पादक है, तभी तक वह ठीक है। जब इनर्जी उससे नहीं ली जाती, उसे अपने आपमें माल और दौलत समझकर बटोरा और जमा किया जाता है, तब वह रोगका कारण बनता है।
जिसको इन्वेस्टमेण्ट कहा जाता है, वह उस रुपयेके इनर्जी रूपको कायम रखनेकी ही पद्धति है। उसका व्यय होते रहना गति - चक्रको बढ़ाने और तीव्र करनेमें सहायक होता है । हाँ, हम देखते है कि वह ठहरता भी है। वास्तवमे कोई गति अवस्थानके
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