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उपयोगिता
श्रस्मानका अक्स देखते है उसीको आस्मान और उतनेहीको श्रस्मानका परिणाम मान लेते है । अगर हम यह भूल न करें तो उस आस्मानके प्रतिबिंबसे बहुत लाभ उठा सकते है । पर अक्सर इतनी समझ हमें नहीं होती और हम अपना अलाभ अधिक कर डालते है ।
यह भी विचारना चाहिए कि हमारे घरके घड़ेमें प्रतिबिम्बित होना आस्मानकी सार्थकता नहीं है । उसकी सत्ताका हेतु यह नहीं है । अपने विम्ब धारण करना तो उस घड़ेका पानीका गुणविशेष है । उतना ही आकाशका धर्म और अर्थ मान बैठना उस महारहस्यमय आकाशसे प्राप्त हो सकनेवाले अगाध आनन्दसे अपनेको वंचित कर लेना है । दूसरे शब्दोमे, वह मानवकी महान् मूर्खता है ।
पर इस अनंत शून्याकाशको में बाँधकर रक्खूँ, तो कहाँ ? देखूँ, तो कैसे ? – आँखें वहाँ ठहरती ही नहीं। वह अति गूढ़ है, अति शून्य है । अपने घड़ेके भीतरके उस प्रतिविम्बमे मै बिना कंपनके झाँक तो सकता हॅू। यह नील धवल महाशून्याकाश, नहीं तो, मुझसे देखा नहीं जाता, जाना नही जाता । कैसे मानूँ कि मै बहुत अकेला हूँ, बहुत छोटा हूँ । वह असीम है, वारापार उसका कहाँ है ? और मैं उसे देखूँ क्यों नहीं ? इसलिए, मै उसे अपने घटके शांत पानीमे ही उतार कर देखूँगा ।
मैं
ज़रूर वही करूँ । वही एक गति है और वही उपयोगिताकी उपयोगिता है ।
इससे आगे उपयोगिताको दौड़ाना अपनी सवारीके टट्टूको
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