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दूसरेको नापना बिलकुल गलत होगा। जिस धरतीपर वे खड़े हैं उसका केद्र (अंतरात्मा ) ३ है। उनकी सब प्रतीतियाँ, सव गतियाँ अन्ततः अपनी सिद्धिके लिए उस ३ विन्दुकी अपेक्षा रखती हैं । वह ३ विन्दु सबसे समान दूरीपर है । वह सबको एक-सा प्राप्य अथवा अप्राप्य है। सब प्रकारका भेद उस केंद्र-विन्दु ३ में जाकर लय हो जाता है । वहाँसे आगे कोई दिशा नहीं जाती । सब दिशाएँ वहाँसे चलती है और वहीं समाप्त होती है। अ३ स अपने आपमें कोई रेखा नहीं है । कोई दिशा या कोई ऐसी रेखा नही हो सकती जिसके एक सिरेपर वह (जीवनका) केंद्र-विन्दु विराजमान् न हो। इसलिए अ ३ स चाहे एक सीधी रेखा दीख पड़ती हो, पर वह भ्रांति है;-वैसा है नहीं। वृत्तकी परिधिपरके सब विन्दु माध्याकर्पणद्वारा ३ के प्रति आकृष्ट हैं । उस आकर्पणके ऐक्यके कारण ही पृथ्वी थमी हुई है। ३ सबका स्रोत-बिन्दु है, समस्तका अन्तरात्मा है । वहॉ जाकर किसीकी भिन्न सत्ता नहीं रहती। इस प्रकार अ और स इन दो बिन्दुओंसे प्रतिकूल दिशाओं में चलनेवाली दोनों रेखाएँ ३ में ही गिरती हैं । और वे दोनों असलमें प्रतिकूल भी नहीं है, दोनों अनुकूल हैं, क्योंकि दोनों अपने केंद्रकी
ओर चल रही है। __चित्रसे प्रकट है कि किस प्रकार अ, व, स और द अपने अपने विशिष्ट विन्दुओं (अहं) को केंद्र मान लें तो उन व्यक्तियों का जीवन भ्रान्त ही हो जायगा और उस जीवनको कोई दिशा न प्राप्त होगी।
हमारे लौकिक शास्त्र और लौकिक कर्म बहुधा इसी अहं-चक्रमें पड़कर विफल हो जाते हैं। अपने घरके घड़ेके पानीमे जो हम १८६