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व्यक्तको शून्य बनाकर, स्वयं प्रस्फुटित होता है और इस भाँति हमारे जीवनके भीतरकी समताको स्थिर रखता है ! क्या यह भी नहीं हो सकता कि हम स्वप्नमें विभेदको तिरस्कृत करके अभेदका पान करते
और, उसीके परिणाममें, उठकर विभेदसे युद्ध करनेमें अधिक समर्थ होते है ? क्या यह नहीं हो सकता कि रातपर दिन निर्भर है, और रात न हो तो दिन दूभर हो जाय ? क्या यह नहीं है कि विभेद तब तक असत्य है, असम्भव है, जब तक अभेद उसमें व्याप्त न हो ! क्या___ पर, रात बीत रही है, और मेरी आँखोंमें नीद नहीं है । ओः, यह समस्त क्या है? मै क्या हूँ! मै कुछ नहीं जानता, मैं कुछ नहीं जानूंगा । मै सब हूँ। सबमें हूँ।
तभी कहीं घण्टा बजा-ए-क । जैसे अँधेरेमें गूंज गया, ए-एक । मैं उस गूंजको सुनता हुआ रह गया । पूँज धीमे धीमे विलीन हो गई, और सन्नाटा फिर वैसे ही सुन्न हो गया । मैंने कहा'एक !' मैने दोहराया—' एक, एक, एक । ' मैने दोहराना जारी रक्खा और नींद कुछ मेरी ओर उतरने लगी । अब मै सोऊँगा । मैं सोऊँगा । बाहर अनेकताके बीच एक बनकर स्थिर शान्तिसे क्यों न मैं सो जाऊँगा ! मै चाहने लगा, मैं सोऊँ । पर तारे हँसते थे और हँसते थे, और मेरी आँखोमें नींद धीमे ही धीमे उतरकर आ रही थी।
दिनके साढ़े दस बजे होगे । मै मेजपर बैठा था तभी मुंशीजी आये । लाला महेश्वरनाथजीकी जो शहरके इधर-उधर और कई