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नगर-जीवनकी कृत्रिम समस्याओंसे घुटता जा रहा है । उसको शहरकी तंग गलियो और सटी दीवारोको लाँघकर, न हो तो तोड़कर, खुले मैदानमे साँस लेने बढ़ना चाहिए । उससे फेंफड़े मजबूत होंगे और सबका भला होगा।
हिन्दी-साहित्यके सम्बन्धमें बात करते हुए यह कहना भी जरूरी मालूम होता है कि जैसे सुचारुताके लिए व्यक्तिमे विविध वृत्तियोंका सामंजस्य आवश्यक है, उसी भाँति, साहित्यमें आदर्शोन्मुख भावनाओं और परिणामोंके सामंजस्यकी ओर हमें ध्यान देना होगा। ऐसा न होनेसे साहित्य जब कि रोमांटिक (=कल्पना-विलासी ) हो उठता है तब उसकी ओट लेनेवाला जीवन संगति-हीन और उथला हो चलता है । कल्पनाका विलास तथ्य वस्तु नहीं है । इस प्रकार, जो अध्यात्मका अथवा दर्शन-ज्ञानका वातावरण बनता है वह भ्रामक होता है, प्रेरक नहीं होता। वह छलमें डालता है, बल नहीं देता। स्वप्न खूब मनोरम हो, पर वह स्वप्न ही है तो किस कामका ! उसी स्वप्नकी कीमत है जिसके पीछे प्रेरणा,-Will भी है । और ऐसा स्वप्न स्वप्न कम, संकल्प अधिक हो जाता है । साहित्यके मूलमें यदि कल्पना है तो वह श्रद्धामूलक है; अन्यथा, विवेक-वियुक्त कल्पना धोखा दे सकती है, निर्माण और सर्जन नहीं कर सकती।
यूरोपके साहित्यको जो बात प्रबल बनाती है वह उसकी यही प्रेरक शक्ति है । स्वम उनके उतने ऊँचे न हो, और नहीं हैं, लेकिन, उनके संकल्पों और उन स्वमोमे उतनी दूरी भी नहीं है कि विरोध मालूम हो । मन-वचन-कर्मका यह सामंजस्य,--यह ऐक्य, ही असली तत्त्व है। इस समन्वयसे मनको भावना अधिक प्रेरक, वचन