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मुझे छुट्टी नहीं लेने देती । मैंने कहा-मैं इस बारेमें क्या कह सकता हूँ।
महेश्वरजीने सहास प्रसन्नतासे कहा-वाह, पाप नहीं कह सकते तो कौन कह सकता है! ___ मैंने कहा-मुझे मालूम नहीं। मैने अभी सोशलिज्मपर पूरा
साहित्य नहीं पढ़ा है । पाँच-सात किताबें पढ़ी हैं। और सोशलिज्मपर साहित्य है इतना कि उसे पढ़नेके लिए एक ज़िन्दगी काफी नहीं है। तब मै इस जिन्दगीमें उसके बारेमें क्या कह सकता हूँ !
महेश्वरजीने कहा-भाई, बड़े चतुर हो! बचना कोई तुमसे सीखे।
पर मुझे जब इस तरह अपनी ही हारपर चतुराईका श्रेय दिया जाता है, तब मैं लज्जासे ढंक जाता हूँ। लगता है कि मेरी अज्ञानता कहीं उनके व्यङ्गका विषय तो नहीं हो रही है। मैंने कहा-नहीं, बचनेकी तो बात नहींमहेश्वरजी बोले-तो क्या बात है, कहिए न ।
अपनी कठिनाई जतलाते हुए मैंने कहा कि जब मैं समाजकी समस्यापर विचारना चाहता हूँ, तभी अपनेको ठेलकर यह विचार सामने आ खड़ा होता है कि समाजकी समस्याके विचारसे मेरा क्या सम्बन्ध है । तब मुझे मालूम होता है कि सम्बन्ध तो है, और वह सम्बन्ध बड़ा घनिष्ठ है । वास्तवमें मेरी अपनी ही समस्या समाजकी भी समस्या है। वे दोनों भिन्न नहीं है। व्यक्तिका व्यापक रूप .समाज है । पर चूकि मैं व्यक्ति हूँ, इसलिए समस्याका निदान और समाधान मुझे मूल-व्यक्तिकी परिभाषामें खोजना और पाना अधिक उपयुक्त और सम्भव मालूम होता है। इस भाँति, बात मेरे लिए १५८