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इस क्षण मुझे क्या और कैसा होना चाहिए, इसकी कोई सूझ इस 'इज्म' में से मुझे प्राप्त नहीं होती। मुझे मालूम होता है कि मैं जो कुछ हूँ, सोशलिस्टिक स्टेटकी प्रतीक्षा करता हुआ वही बना रह सकता हूँ और अपना सोशलिज्म अखण्ड भी रख सकता हूँ । तब मैं उसके बारेमें क्या कह सकूँ ? क्योंकि मेरा क्षेत्र तो परिमित है न ? सोशलिज्म एक विचारका प्रतीक है । विचार शक्ति है । वह शक्ति किन्तु 'इज्म' की नहीं है, उसको माननेवाले लोगोंकी सचाई की वह शक्ति है । लोगोंको जयजयकारके लिए एक पुकार चाहिए । किन्तु पुकारका वह शब्द मुख्य उत्साह है । उसीके कारण शब्दमें सत्यता आती है। सोशलिज्मका विधान वैसा ही है, जैसा झण्डेका कपड़ा । झण्डेको सत्य बनानेवाला कपड़ा नहीं है, शहीदोका खून है । सोशलिज्मकी सफलता यदि हुई है, हो रही है, या होगी, वह नहीं निर्भर है इस बातपर कि सोशलिज्म अन्ततः क्या है और क्या नहीं है, प्रत्युत् वह सफलता अवलम्बित है इसपर कि सोशलिस्ट अपने जीवनमें अपने मन्तव्योंके साथ कितना अभिन्न और तल्लीन है और कितना वह निस्स्वार्थ है । और अपने निजकी और आजकी दृष्टिसे, अर्थात् शुद्ध व्यवहारकी दृष्टिसे, यह सोशल - इज़्म मुझे अपने लिए इतना वादमय, इतना हटा हुआ और अशास्त्रीय - सा तत्त्व ज्ञात होता है कि मुझे उसमें तल्लीनता नहीं मिलती । और मै क्या कहूँ ? धर्मसे बड़ी शक्ति मै नहीं जानता । पर जीवनसे कटकर जब वह एक मतवाद और पन्थका रूप धरता है, तब वही निर्वार्यताका बहाना और
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