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अभेद
रात ...
सब सो गये है और
समानमें तारे घिरे है। मै उनकी ओर देखता हुआ जागता हॅू। नींद आती ही नहीं। मेरा मन उन तारोंको देखकर विस्मय, स्नेह और अज्ञानसे भरा आता है। वे तारे हैं, छोटी छोटी चमकती बुन्दियोंके से कैसे प्यारे प्यारे तारे ! पर उनमेसे हरएक अपने में एक विश्व है। वे कितने है ! कुछ पार नहीं, कुछ भी अन्त नहीं । कितनी दूर है ? – कोई पता नहीं । हिसाबकी पहुँचसे बाहर, वे नन्हें नन्हें झिप झिप चमक रहे हैं । उनके तले कल्पना स्तब्ध हो जाती है। स्वर्णके चूर्णसे छाया, शान्त, सुन्न, सहास्य कैसा यह ब्रह्माण्ड है ! — एकान्त, अछोर, फिर भी कैसा निकट, कैसा स्वगत !... मुझे नींद नहीं आती और मै उसे नहीं बुलाना चाहता । चाहता हूँ, यह सब तारे मुझे मिल जायँ । वे मुझमें प्रा जायँ । मुझसे बाहर कुछ भी न रहे । सब कुछ मुझमें हो रहे, और मैं उनमें ।
मैं अपने को बहुत छोटा लगता हूँ, बहुत छोटा । - बिलकुल बिन्दु, एक जरी, एक शून्य । और इस समय जितना मै अपनेको शून्य अनुभव करता हूँ, उतना ही मेरा मन भरता आता है। जाने कैसे, मैं अपनेको उतना ही बड़ा होता हुआ पाता हूँ। जैसे जीके भीतर आह्लाद भरा जाता हो, उमड़ा श्राता हो। मुझे रहा है कि मैं कुछ भी नहीं हूँ। जो हूँ, समस्तकी गोदमें हूँ; और हूँ, तो बस इस ज्ञानके आनन्दके लिए हूँ कि सब है, सबमें मैं हूँ। मुझे मालूम होता है कि मेरी सीमाएँ मिट गई हैं, मै खोया जा रहा हूँ, मिला जा रहा हूँ। मालूम होता है, एक गम्भीर मानन्द...
बड़ा अच्छा लग
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