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स्वातन्त्र्यसे पैदा हुई है । मनुष्य पशु है, वह एक सामाजिक पशु है, नैतिक पशु है, या और कुछ चाहे कहिए, पर वह है सतन् पशु । समाजका शासन उसपर अनिवार्य है । स्वत्व सब समाजमें रहें, व्यक्ति निस्वत्व हो । व्यक्तिका धर्म ध्यात्म-दान है, उसका स्वत्व कुछ नहीं है । उसका कर्त्तव्य सेवा है । आज इसी जीवन-नीतिके श्राधारपर समाजकी रचना खड़ी करनी होगी । सोशलिज्म यही कहता है और उसके औचित्यका खंडन नहीं किया जा सकता । "
महेश्वरजीसे सहमत होनेके लिए मेरे पास अवकाश नहीं है पर उनकी-सी दृढ़ता भी मुझमें नहीं है और न उतनी साफ साफ बातें मुझे दीख पाती हैं । यह मैं जानता हूँ कि मानव पशु है, फिर भी मन इसपर सन्तुष्ट नहीं होता कि वह पशु ही है। पशु हो, पर मानवं भी क्या वह नहीं है ? और महेश्वरजीकी ओर सस्पृह - सम्भ्रमके साथ देखता रह जाता हूँ ।
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याप कुछ कहिए, लेकिन मैं तो सोलह याने इस चीज़में बँध गया हूँ। आप जानते हैं, मेरे पास जायदाद है। लेकिन मै जानता हूँ वह मेरी नहीं है। मैं प्रतीक्षामें हूँ कि कब स्थिति बदले और एक समर्थ और सदाशय सोशलिस्ट स्टेट इस सबको अपने जिम्मे ले ले । मैं खुशी से इसके लिए तैयार होऊँगा । सोशलाइज़ेशन हुए बिना उपाय नहीं। यों उलझनें बढ़ती ही जायँगीं । श्राप देखिए, मेरे दस मकान हैं, मैं अकेला हूँ। मैं उन सब दस मकानों में कैसे रह सकता हूँ ? यह बिलकुल नामुमकिन है । फिर यह चीज़ कि वे दस मकान मेरे हैं, कहीं न कहीं झूठ हो जाती है, ग़लत हो जाती है । जब यह मुमकिन नहीं है कि मैं दस मकानोंमें रह सकूँ, तब यह भी
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