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जरूरी भदभदे
ससम्भ्रम उसके
कि वही सत्य कह सकते
कहता है कि सत्य अमुक और अमुक है, तब मै चेहरेकी ओर देखकर सोच उठता हूँ 'क्या पता है हो । तुम स्वयं तो कुछ जानते हो नहीं, तब यही कैसे हो कि वह सत्य नहीं है !
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महेश्वरजी कहते रहे कि "जी हाँ, सोशलिज्म युग-धर्म है । मनुष्य व्यक्ति बनकर समाप्त नहीं है । वह समाजका अङ्ग है । समाज व्यक्तिस बड़ी सत्ता है । व्यक्तिगत परिभाषा खड़ी करके आदमी अपनेको बाँध लेता है, कहता है, 'यह मेरी चीज, मेरी जायदाद ! ' इस तरह जितने व्यक्ति हैं उतने असंख्य स्वार्थ खड़े होते है । उन स्वार्थोंमें संघर्ष होता है और फलतः क्लेश उत्पन्न होता है। मनुष्य के कर्ममेंसे और कर्म-फलमे से उसका, यानी एक व्यक्तिका, स्वत्व-भाव उठ जाना चाहिए। एक संस्था हो जो समाजकी प्रतिनिधि हो, जिसमे समस्त केन्द्रित हो, एक सोशलिस्ट स्टेट । वह संस्था स्वत्वाधिकारी हो, --- व्यक्ति समाज-संस्थाके हाथमे हो, वह साधन हो, सेवक हो । और 1 स्टेट (यानी वह संस्था ) ही मूल व्यवसायोंकी मालिक हो, उपादानोकी भी मालिक हो, भूमिकी भी मालिक हो और फिर पैदावारकी भी मालिक वही हो । व्यक्तिको आपाधापी न करने दी जाय ।-~~-देखिए न आज एक दास है दूसरा प्रभु है। एक क्यों, जब दस दास हैं तब एक प्रभु है। लड़ाइयाँ होती है, कमी देश-प्रेम और दायित्व - रक्षाके नामपर होती हैं पर असल में वे लड़ाइयाँ प्रमुखोंके स्वार्थो मे होती है और उन्हींके पोषण के लिए होती है । उन युद्धोमें हजारों-लाखो आदमी मरते है। पर उन लाखोंकी मौत उनको मोटा बनाती है जो युद्धके असली कारण होते है । यह हालत व्यक्ति१५५