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और कुलीनता के विरुद्ध उनके मनमें चुनौती भरी रहती है ! वह व्यक्तित्वमें उनके हल नही हो सकी है, फूटती रहती है और उन्हें बेचैन रखती है ।
बीससे चौबीस वर्ष तककी व्यवस्थाका युवक सामान्यतया अपनेको दुनियाके श्रामने- सामने पाता है । उसे झगड़ना पड़ता है तब जीना उसके लिए सम्भव होता है। दुनिया उसको उपेक्षा देती है और उसकी टक्करसे उस युवामें श्रात्म- जागृति उत्पन्न होती है । चाहे तो वह युवक इस संघर्षमें डूब सकता है चाहे चमक सकता है।
इतिहास के महापुरुषों में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं है जहाँ विधाताने उन्हें ऐसे जीवन-संघर्षका और विपत्तियोंका दान देनेमें अपनी ओरसे कंजूसी की हो। पर, मै क्या आज विधातासे पूछ सकता हूँ कि जवाहरलालको आत्मा देकर, जवाहरलालकी किस भूलसे, उसने लाड़-प्यार और प्रशंसा - स्वीकृति के वातावरण में पनपनेको लाचार किया ? मैं कहता हूँ, विधनाने यह छल किया ।
परिणाम शायद यह है कि जवाहरलाल पूरी तरह स्वयं नहीं हो
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सके । वह इतने व्यक्तित्व नहीं हो सके कि व्यक्ति रहे ही नही । थियरी उनको नही पाने चलती, वही उसको खोजते हैं। शास्त्रीय ज्ञानकी टेकन उनकी टेकन है, हाँ, शास्त्र याधुनिक हैं । ( पुस्तकमे कितने और कैसे कमालके रेफरेन्स और उदाहरण हैं ! ) शास्त्र उनके मस्तक में है, दिलमें नही । दिलमें शास्त्रका सार ही पहुँचता है, बाकी छूट जाता है। इसीसे अनजानमें वह शास्त्र के प्रति श्रवज्ञाशील हो जाते हैं। एक 'इज्म' का सहारा लेते हैं, दूसरे 'इज़्मों ' पर
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