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नेहरू और उनकी 'कहानी'
प्रहार करते हैं। सच यह है कि वह पूरे जवाहरलाल नहीं हो सके है तभी एक 'इस्ट ' ( सोशलिस्ट ) हैं और, ध्यान रहे, वह पैतृक 'इज्म' नहीं है ।
चूँकि उन समस्याओंसे उन्हें सामना नहीं करना पड़ा जो आये दिनकी आदमीकी बहुत करीबकी समस्याएँ हैं, इसीसे उनके मनमें जीवन - समस्याओं के अतिरिक्त और अलग तरहकी बौद्धिक समस्याएँ घिर आई ।
आदमीका मन और बुद्धि खाली नहीं रहते । सचमुचकी उन्हें उलझन नहीं है, तो वह कुछ उलझन बना लेते हैं । जीवन - समस्या नहीं तो बुद्धि- समस्याको वे बौद्धिक रूप ही दे देते है। क्या यह इसीसे है कि उनकी बौद्धिक चिन्ता रोटी और कपड़ेके राजनीतिक प्रोग्रामसे ज्यादा उलझी रहती है, क्योकि, रोटी और कपड़े की समस्या के साथ उनका रोमांसका सम्बन्ध है।
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स्थूल अभावका जीवन उनके लिए रोमांस है। क्या ऐसा इसीलिए है कि उनका व्यावहारिक जीवन जब कि देहाती नहीं है तब बुद्धि उसी देहात के स्थूल जीवनकी ओर लगी रहती है ! और लोग तो चलते धरतीपर है, कल्पना आस्मानी करते है । जवाहलालजीके साथ ही यह नियम नहीं है। क्या हम विधातासे पूछ सकते हैं कि यह विषमता क्यों है ?
जवाहरलालजीको देखकर मन प्रशंसासे भर जाता है । पुस्तक पढ़कर भी मन कुछ सहमे बिना न रहा । जब उस चहरेपर झल्लाहट देखता हूँ, जानता हूँ कि इसके पीछे ही पीछे मुस्कराहट आ रही है ।
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