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रहा हूँ और ताज्जुब कर रहा हूँ। तब क्या यह कह पहूँ कि, 'मित्रवर, मैं आपकी बात सुन रहा हूँ और ताज्जुब कर रहा हूँ।' नहीं, ऐसा कहना ठीक न होगा। मित्र इससे कुछ समझेंगे तो नहीं, उल्टा बुरा मानेगे । दयाराम मूर्ख तो हो सकता है, पर बुरा होना नहीं चाहता । इसलिए, उस प्रश्नके जवाबमें मै, मूर्खका मूर्ख, कोरी निगाहसे बस उन्हे देखता रह जाता हूँ। बल्कि, थोड़ा-बहुत और भी आतिरिक्त मूढ़ बनकर लाजमें सकुच जाता हूँ। पूछना चाहता हूँ कि 'कृपया आप बता सकते है कि मैं क्या करूँ ?-यानी क्या कहूँ कि यह करता हूँ।'
किन्तु, यह सौभाग्यकी बात है कि मित्र अधिकतर कृपापूर्वक यह जान कर संतुष्ट होते हैं कि दयाराम मेरा ही नाम है। वह नाम अखबारोंमें कभी कभी छपा भी करता है। इससे, दयाराम होनेके बहाने मैं बच जाता हूँ। यह नामकी महिमा है । नहीं तो, दिनमें जाने कितनी बार मुझे अपनी मूढ़ताका सामना करना पड़े।
आज अपने भाग्यके व्यंग्यपर मैं बहुत विस्मित हूँ। किस बड़भागी पिताने इस दुर्भागी बेटेका नाम रक्खा था 'दयाराम' । उन्हे पा सकूँ तो कहूँ, 'पिता, तुम खूब हो ! बेटा तो डूबने ही योग्य था, किंतु तुम्हारे दिये नामसे ही वह भोला, चतुर मित्रोंसे भरे, इस दुनियाके सागरमें उतराता हुआ जी रहा है। उसी नामसे वह तर जाय तो तर भी जाय । नहीं तो, डूबना ही उसके भाग्यमें था । पिता, तुम जहाँ हो, मेरा प्रणाम लो । पिता, मेरा विनीत प्रणाम ले लो । उस प्रणामकी कृतज्ञताके भरोसे ही, उसीके लिए, मै जी रहा हूँ, जीना भी चाहता हूँ पिता, नहीं तो, मैं एकदम मतिमंद हूँ और जाने क्यों जीने-लायक हूँ!" १२४