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यहाँ मुझे अपने ही वे शब्द याद आते है जो न जाने कहाँ लिखे थे“While Gandhi is a consummation, Jawaharlal is a noble piece of tragedy. Describe Gandhi as inhuman if you please, but Jawaharlal is human to the core. May be, he is concertingly so."
जहाँसे जवाहरलाल दूसरी राह टटोलते हैं और अपना मत-भेद स्पष्ट करते दीखते हैं, उसी स्थलसे पुस्तक कहानी हो जाती है । वहाँ जैसे लेखकमें अपने प्रति तटस्थता नहीं है । वहाँ लेखक मानो पाठकसे प्रत्याशा रखता है कि जिसे मैं सही समझता हूँ, उसे तुम भी सही समझो, जिसे गलत कहता हूँ उसे गलत । वहाँ लेखक दर्शक ही नहीं, प्रदर्शक भी है। वहाँ भावनासे आगे बढ़कर वासना भी आ जाती है। यों वासना किसमें नहीं होती! वह मानवका हक है। लेकिन, लेखकका अपनी कृतिमें वासना-हीनका ही नाता खरा नाता है। वही आर्टीिस्टक है । जवाहरलालकी कृतिमें वह श्रा गया है जो इनार्टिस्टिक है, असुन्दर है । आधुनिक राजनीति (या कहो कांग्रेस-राजनीति) में निस समयसे अधिकारपूर्वक प्रवेश करते हैं, उसी समयसे अपने जीवनके पर्यवेक्षणमें लेखक जवाहरलाल उतने निस्सग नहीं दीखते। ___ आत्मचरित लिखना एक प्रकारसे आत्म-दानका ही रूप है। नहीं तो, मुझे किसकि जीवनकी घटनाओंको जानने अथवा अपने जीवनकी घटनाओंको जतानेसे क्या फायदा ! परिस्थितियाँ सबकी अलग होती हैं। इससे घटनाएँ भी सबके जीवन में एक-सी नहीं घट सकतीं । लेकिन, फिर भी, फायदा है । वह फायदा यह है कि दूसरेके जीवनमें हम अपने जीवनकी झाँकी लेते हैं। जीवन-तत्त्व, ११६