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पर, चाहे मार्ग बिकट हो, मानवताको उसपरसे बढते ही चलना है। मेरी अंतिम प्रतीति है कि जाने-अनजाने अपनी दुर्भावनाओ और दुर्वासनाओकी मार्फत भी हम अंततः एक दूसरेके निकट ही आ रहे हैं। इससे हमें परीक्षणों और विफलतासे घबराना नहीं होगा और लक्ष्यपरसे आँख नहीं हटाना होगा। ___ जीवनकी आस्थाको और अपनी अंतस्थ लौको सँभाले रखकर व्यक्ति राहके ऊबड़-खाबड़को पार करता, दुःख-विषाद झेलता, जिये ही चलता है । कभी त्राससे घिर जाता है, कभी अश्रद्धासे भर पाता है । तव, वह एकांतमे ऊपरके सूनेको देखता और दो-एक भरी साँस छोड़कर फिर अपने जीको कसकर चल पड़ता है। कभी कभी यह सव-कुछ बहुत भारी हो आता है । यहाँ तक कि मृत्यु उसे प्रिय और जीवन विष मालूम होता है । ऐसे समय, वह आत्मघात भी कर बैठता है। लेकिन, जब तक बस है, वह जीवनको भाग्यकी धाराके साथ आगे खेये ही चलेगा । जीवनके अनेकानेक व्यापारोके मंथनमेसे जो कटुताका, कल्मषका, व्यथाका गरल उसके कंठमे भरता है, नानाविध उपायोसे वह अपने भीतरकी, आस्थाके संयोगसे उसीको अमृत बना लेगा। उसे पियेगा, पिलायेगा, और चलता रहेगा। __ इसी व्यथा-विसर्जनके यत्नमें उस मानवद्वारा कलाके नाना स्वरूपोको जन्म मिलता है और साहित्यको जन्म मिलता है। मानवकी अन्तस्थ जीवन-प्रेरणा चुक भले जाय, पर चुप नहीं रह सकती; और वह, बिना चैन, बिना विराम, नये नये भावोमें
अभिव्यक्त होती है । उससे जीवन-यापनमे, जीवन-संवर्धनमे, बल मिलता है, उससे एकसे दूसरेको रस मिलता है । ८२