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हिन्दी और हिन्दुस्तान
वहाँ जीवन निस्तेज और जड़ हो चलता है । यही प्रतिगामिता
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है, क्योकि, इसके सिरों पर केवल अहंकार है और मौत है ।
इसलिए, हिन्दीको भी बंद रहने और बंद रखनेमें विश्वास नही
करना होगा । बंद तो वह है ही नहीं,
बंद इस जगतमे कुछ भी
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नहीं है । सब कुछ सबके प्रति खुला है । और साहित्य वह वस्तु है 1 जो सब ओर ग्रहणशील है । वह सूक्ष्म चिन्ता - धाराओ के प्रति भी जागरूक है, हलका-सा स्पर्श भी उसे छूता और उसपर छाप छोड़ता ' है । ऐसी अवस्थामें, हिन्दीके साहित्यको विश्वकी साहित्य - धाराओोसे अलग समझना भूल होगी । आदान-प्रदान, घात- संघात, चलता ही रहा है । हम जानें या न जानें, वह संघर्ष न कभी रुका न रुक सकता है। आज, जब कि बातचीत और आने-जाने के साधन विद्युगामी हो गये है, उस संघर्षको काफ़ी स्पष्टता मे चीन्हा जा सकता है । अतः, आज यदि हिन्दीके प्रस्तुत साहित्यको कना हो तो उसे इसी परस्परापेक्षामें रखकर देखना होगा । और इस प्रकारकी उस सम्यक्-समीक्षा और विद्वान् समीक्षकोंकी हिन्दीको श्रावश्यकता है ।
आदमी आदमीके, देश देशके, द्वीप द्वीपके, क्षण क्षण पाससे और पास आता जा रहा है । निस्सन्देह, इस ऐक्यकी साधनामे मानवताको बड़े प्रयोग और परिश्रम भी करने पड़ रहे है। आदमी आदमी में, देश देशमें, द्वीप द्वीपमे डाह और बैर भी दीखते है । महायुद्ध होकर चुका है; छुट-मुट युद्ध आँखों-आगे नित्य प्रति हो रहे है और आसन्न भविष्य में अगले महायुद्धकी घटाएँ छाई हैं । उस युद्धकी विभीषिका अब भी मनुष्यके मानसपर दबाव डाल रही है ।
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