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आलोचकके प्रति
पाठक भी उन्हें नहीं पकड़ सकता । वे वहाँ वाक्योंके बीचमे जम बैठती हैं और मनमानी करती है। दूसरे यह, कि हिंदीमें पंक्चुएशन किसी निश्चित और अनुकूल पद्धतिपर अभी नहीं जम पाया है। उसे स्थिर होना चाहिए । भाषाको वशमें लानेके लिए वह आयुध हिन्दीमें अभी पूरा काम नहीं देता ।
फिर यह, कि प्रत्येक परिचयमें कुछ नवीनता होती है। परिचयकी प्रथमता धीरे धीरे जब दूर होगी तब भाषाके पहनावेपर ध्यान गौण होता जायगा, उसकी आत्माके साथ घनिष्ठता बढ़ेगी । यहाँ घबराहट उचित नहीं है, क्योंकि, पहनावा ही आदमी नहीं है, अतः, वह वृत्ति भली नहीं है जो नवीनताको शनैः शनैः पककर अपने साथ घनिष्ठ नहीं होने देना चाहती। __ अपने लेखन-कालमें पाठकको हैसियतसे मैने एक बात सीखा है। वह यह कि जगत्के प्रति विद्वान् बनकर रहनेसे कुछ हाथ नहीं लगता । जो पाना चाहता हूँ वह, इस भाँति, कुछ दूर हो जाता है। जगत्के साथ विद्वत्ताका नाता मीठा नाता नहीं है । विद्वान्के निकट जगत् पहेली हो जाता है,-जगत् अज्ञेय बनता है, और विद्वान् , उसी कारण, उसे स्पर्ध-पूर्वक ज्ञेय-रूपमें देखता है। फलतः, विद्वान्में एक रसहीन कुण्ठा और धारदार आग्रह पैदा होता है । जगत् उसके लिए प्रेमकी और आनन्दकी चीज़ नहीं हो पाता । विद्वान् प्रत्याशा बाँधता है कि जगत् उसकी थियरीमें,—उसके 'वाद'में, चौखूट बैठ जायगा; पर, ऐसा होता नहीं और विद्वान् अपनी प्रत्याशाओमें विफल अतः जगत्के प्रति रूक्ष और रुष्ट रहता है। विद्या-गर्वके ऊपर जीवन जीनेकी यह पद्धति सम्पूर्ण नहीं है। यह सच्चिदानन्दकी ओर नहीं ले जाती।-उपलब्धिकी यह राह नहीं । अपना एक 'कोड'