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समझौता कर लिया जाय । उससे विरोध नहीं ठाना जा सकता । परन्तु, भाषाके प्रयोग मनमाने हों और चौकानेके लिए हों तो बुरा है। पाठकको चौकाये, इसमें तो लेखकका अहित ही है, चौकाकर वह किसीको अपना मित्र नहीं बना सकता। फिर भी, यदि चौंका देता है तो उसे क्षमाप्रार्थी भी समझिए, इसे कुशलताका परिणाम मान
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लेना चाहिए । अगर, अपनी ओरसे कहूँ कि वह आग्रहका परिणाम नहीं है, तो पाठकको इसे असत्य माननेका आग्रह नहीं करना चाहिए।
भाषापर मै क्वचित् ही ठहरता हूँ । राह दीर्घ है, यहाँ ठहरना कहाँ ? जब ठहरनेका अवकाश नहीं है तब सोच-विचार कहाँसे हो कि भाषाको ऐसा बनाओ अथवा ऐसा न बनाओ । बनानेसे भाषाके बिगड़नेका देशा है। सोचकर चलनेसे भाषापर व्यक्तिका अहंकार लद जाता है । यो भाषा बढ़िया भी लगे, पर, कृत्रिम हो जाती है । I बढ़िया - घटिया तो फैशनकी बातें हैं। फैशन बदलता रहता है । बढ़ियापनका लालच पाकर मै कृत्रिम भाषा पाठकको कैसे दूँ ! यदि मैं पूर्ण तरह परिष्कृत नहीं हूँ तो यह मेरा अपराध है; पर, जो हूँ वही रहकर मै पाठकके समक्ष क्यो न आऊँ ! बन-ठनकर कैसे आऊँ ? पाठकका तिरस्कार मुझे सह्य होगा; पर, पाठकको धोखेमे मै नहीं रक्खूँगा। यह विश्वास रक्खा जाय कि मैं सुगम होना चाहता क्योंकि, पाठकसे घनिष्ठ और अभिन्न होना चाहता हूँ । - साधारण और स्वच्छ रहना चाहता हूँ, क्योंकि, अपने और सबके प्रति संभ्रमशील रहना चाहता हूँ । दर्प दयनीय है । तब मैं भला किसकी रुचिको चुनौती देनेकी ठानूँ ?
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एक बात और भी । किताबों में प्रेसकी भूले भी होती है। वे ऐसी दक्षतासे किताबमें अपनी जगह बना लेती है कि प्रति सावधान
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