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अमाती है। अपनेको मानव कब पूरा जान सका है ? जाननेको शेष तो रह ही जायगा । इसलिए, सदा वह घटित होता रहता है जो हमारे ज्ञानको चौंका देता है | Truth is Stranger than Fiction के, नही तो, और माने क्या है ? Truth को क्या यह कहकर बहिष्कृत करें कि वह ज्ञात नहीं है? तब फिर बढ़नेके लिए आस क्या रक्खें ? जीवनकी टेक किसे बनावे ?
आलोचकके समक्ष मैं नत-मस्तक हूँ। सविनय कहता हूँ कि 'जी हाँ, मैं त्रुटिपूर्ण हूँ। आपको संतोष नहीं दे सका इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। शायद, मैं आपकी चिन्ताके योग्य नहीं हूँ। पर जब आप जज हैं, तब अभियुक्त बने ही तो मुझे गुजारा है । क्या हम दोनों बराबर आकर मिल नहीं सकते ! मान लीजिए कि आप जज नहीं है, और भूल जाते है कि मै अभियोगी हूँ, तब उस भाँति क्या आदमी आदमीकी हैसियतसे हम एक-दूसरेको ज्यादा नहीं पायेगे ! मै जानता हूँ, जजकी कुर्सीपर बैठकर अभियुक्तको कठघरेमें खड़ा करके उसके अभियोगकी छान-बीनका काम करनेमे आपके चित्तको भी परा सख नहीं है। तब क्या चित्तका चैन ऐसी चीज नहीं है कि उसके लिए आप अपनी ऊँची कुरसी छोड़ दे ? आप उस कुर्सीपर मुझसे इतने दूर, इतने ऊँचे, हो जाते है कि मै संकुचित होता हूँ। आप जरा नीचे आकर हाथ पकड़कर मुझे ऊपर तो उठावे,
और फिर चाहे भले ही कसकर दो-चार मिडकियाँ ही मुझे सुनावें। क्योकि, तभी मेरे मनका संकोच दूर होकर मुझे हर्ष होगा । और तब, आप पायेंगे कि और कुछ भी हो, मैं आपका अनन्य ऋणी बना हूँ।'