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जीवन और साहित्य
हो, हृदय बिना पेटका भी काम नहीं चलता। जब आपने रोटीके मुकाबिलेमे साहित्य रक्खा है, तो मैं समझता हूँ आपका आशय किसी जिल्द बंधी पोथीसे नहीं है । आशय उस सूक्ष्म सौन्दर्य-भावनासे है जो साहित्यकी जननी है। मै तो उस स्थितिकी भी कल्पना कर सकता हूँ जब रोटी छूट जायगी, साहित्य ही रह जायगा । जातीय आदर्श रोटी नहीं है, रोटीमें नहीं है । रोटी तो जीनेकी शर्त मात्र है। रोटी ही क्यों, क्या और प्राकृतिक कर्म नहीं है जो जीवनके साथ लगे है ? लेकिन, उनके निमित्त हम नहीं जीते और न उनके लिए हम मरते है । आदर्श रोटीमय नही है, रोटी-सा पदार्थमय भी नहीं है । वह चाहे वायवीय ही हो, लेकिन, उस आदर्शके लिए हम मरते रहते है, --उसीमेसे मरनेकी शक्ति पाते हैं । साहित्य उस आदर्शको पानेका, उसे मूर्त करनेका, प्रयास है । रोटीके बिना हम कई दिन रह लेगे, हवाके बिना तो कुछ क्षणोंमें ही हमारा काम तमाम हो जायगा,साहित्य उस हवासे सूक्ष्म, किन्तु, उससे भी अधिक अनिवार्य है। लेकिन, साहित्य और रोटीमे विरोध ही भला आपको कैसे सूझा ? वैसा कोई विरोध तो नहीं है । यह ठीक है कि जो रोटीको तरसता है उसके फैले भूखे हाथोंपर साहित्यकी किताब रखना विडम्बना है। लेकिन, यह भी ठीक है कि भारतके भूखे कृषक-मजूर रामायणके पाठमेंसे रस लेते हैं । उनके उस रसपर प्रश्न करना, उसे छीन लेना, भी क्या निरा असम्भव नहीं है ? अन्तमें, मै कहूँगा कि आपके प्रश्नमें संगति नहीं है । साहित्य आदमीसे सर्वथा अलग करके रखी जानेवाली चीज़ नहीं है। रोटीका अस्तित्व मनुष्यसे अलग है, साहित्यका वैसा अलग है ही नहीं ।