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आलोचकके प्रति
कब्जा चाहता हूँ, जो 'मेरा ' नही है उससे विरोध ठानता हूँ । इस भाँति, ' मैं ' जीता और बढ़ता हूँ । – यही जीवनकी प्रक्रिया है ।
असल 'स्व' और 'पर' का विभेद माया है । जीवनकी सिद्धि उनके भीतर अभेद - अनुभूतिमें है । पर अभेद कहनेहीसे तो संपन्न नहीं हो जाता, उसीके लिए है साधना, तपस्या, याग -यज्ञ | जाने
अनजाने प्रत्येक ' स्व ' उसी सिद्धिकी ओर बढ़ रहा है । कुछ लोग वस्तु - जगत्को अपने भीतरसे पाना चाहते है, दूसरे उसे बाहरसे भी ले रहे हैं । संसारमें इस प्रकारकी द्विमुखी प्रवृत्तियाँ देखने में आती ही हैं जिन सबके भीतरसे 'स्व' विशद ही होता चलता है, 'मेरा' का परिमाण संकीर्ण न रहकर विस्तृत ही होता है । जितना वह ' मै ' विशद और विस्तीर्ण होता है, अहंकारके भूतका जोर उसपरसे उतना ही उतरता जाता है ।
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'मै' और 'मेरा' इन दोनोंको मिलाकर व्यक्ति अपना घर बनाता है । उस घरमें व्यक्ति अपना विसर्जन देता और शेष विश्वसे आहरण करता है । —दुनियामेंसे कमाता है, घरमें खर्च करता है; जगत् से लड़ता है, घरकी चौकसी करता है; संसारपर अपनी शक्तिका परीक्षण करता है, घरमें प्रेमका आदान-प्रदान । घर उसके लिए हाट नहीं है । इस 'घर' का ही नाम विकास क्रमसे परिवार, नगर, समाज, जाति, राष्ट्र आदि होता है ।
इसलिए, अगर समस्याको श्राब्जेक्टिव विज्ञानकी राहसे नहीं सब्जेक्टिव कला और हृदयकी राहसे अवगत और आयत्त करना है, तो उसका यही तिखूँट रूप होगा – मै, मेरा, मेरा नहीं । अब यहाँ एक और भी तत्त्व है जिसे मैं अपना मानता हूँ;
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