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अर्थात् , मेरी संपत्ति, मेरी चीज़ आदि, वह भी अपने आपमे अहंशून्य नहीं है । उसमे भी सब्जेक्टिविटी है। फिर भी, जो अंश मेरा बन चुका है उसकी सब्जेक्टिविटी कुछ अनुगत हो गई हुई है। इसीसे, समस्याके चित्रणमें मानव-सम्बन्धोंकी अपेक्षा 'मेरा'का प्रतीक बन जाती है पत्नी । पत्नी घरका केंद्र है । वह ' मेरी' है पर स्वयं भी है, अनुगत है पर जड़ पदार्थ नहीं है, सहृदय है और उसमें भी व्यक्तित्व है। ___ इन स्वामी और पत्नीके साथ ही, किसी कदर उनके बीचमे,
आता है तीसरा व्यक्ति जो 'पर'का प्रतीक है । वह भी एकदम अपरिचित नहीं है ( अपरिचित कैसे हो सकता है भला ! ) प्रत्युत स्पृहणीय है, और वह स्वाधीनतापूर्वक प्रबल है। __ कवि रवीन्द्रने 'घर'में 'वाहर'का प्रवेश कराया । 'घर' इससे विक्षुब्ध हो उठा है। वहाँ 'वाहर ' संदीपके रूपमें अनिमंत्रित है पर प्रबल है । 'घर'की विक्षुब्धता गहन होती जाती है, मानो, 'बाहर के धक्केसे घर टूट जायगा । 'वाहर'का धक्का दुर्निवार है, सर्वग्रासी है । समस्या घोरतरसे घोरतम होती जाती है । तब क्या होता है ?-तब कुछ होता है जिससे समस्या बन्द हो जाती है। संदीप पलायन कर जाता है । पत्नी मुड़कर पतिके प्रति क्षमाप्रार्थिनी, बनती है और फिर पत्नीत्वमें अधिष्ठित होती है। एवं, मानो तय होता है कि,'घर'को 'बाहर के प्रति निरभिलाषी विमुख होकर ही बैठना होगा। __'कवि'की लेखनीकी समता ही क्या ! वह अतुलनीय ही है। पर मेरे मनको समाधान नहीं मिला ।' घर' अपने आपमे अपनेको 'वाहर के प्रति दुष्प्राप्य और प्रतिकूल बनाकर बैठे और उस