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'आलोचकके प्रति
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'बाहर' को सर्वथा बहिष्कृत और विरुद्ध बनाये रक्खे, क्यो यह समाधान है ? क्या यह सिद्धि है ? यहाँ अभेद कहाँ है, यहाँ तो भय है। प्रेम कहाँ है, यहाँ तो प्रेम भी है । —ऐसा हो तब तो समस्या ही क्या हुई ! ऐसा कुछ समाधान क्या चिर- प्राप्त अहंसिद्ध कंज़र्वेटिव समाज-नीति से भी नहीं प्राप्त हो सकता ?
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सो, मनके इस तरहके असंतोषका भी ' सुनीता' के जन्ममें प्रभाव है। मैने 'सुनीता' में अपनी बुद्धिके अनुसार दुस्साहसपूर्वक भी समस्याको ठेलकर आगे बढ़ाया है । मैंने इसमे अपनेको बचाया नहीं है और वहाँ तक मै उसके साथ चला हूँ जहाँ तक समस्याने चलना चाहा है।
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क्या ' सुनीता' का ' घर ' टूटा है ? नहीं, वह नहीं टूटा । क्या उस 'घर' को 'बाहर' के प्रति बंद किया गया है ? नहीं, ऐसा भी नहीं । दोनोंमेंसे कौन किसके प्रति सहानुभूतिसे हीन है ? शायद कोई भी नहीं ।
दोनो शाश्वत रूपमें क्या परस्परापेक्षाशील नहीं हैं ?
भिन्नता देखी और रखी
मैने, चुनाँचे, समस्याके रूपमें भी कुछ 'बाहर' को निरे आक्रमणके रूपमें मैने ' घर के भीतर नहीं प्रविष्ट किया । हरिप्रसन्न ( पुस्तकमें वही 'बाहर' का प्रतीक पुरुष है ) किंचित् प्रार्थी भी है। वह निरा अनिमंत्रित वहाँ नहीं पहुँचा, प्रत्युत् वहाँ मानो उसकी अभीष्टता है । उसके अभाव . घर ' एक प्रकारसे प्रतीक्षमान् है । वहाँ अपूर्णता है, वहाँ अवसाद है, मानो उस ' घर' में 'बाहर' के प्रति पुकार है । इधर हरिप्रसन्न स्वयं अपने आपमें अधूरेपनके बोधसे मुक्त नहीं है; और वह जैसे
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