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और पुस्तकोके महापुरुष मिलकर भी तराजूमें फूँक जितने भी नही तुल सकते। फिर भी, वे सत्यतर हो, तो यह कम सत्य नहीं है। इस अन्तरको
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खूब समझ लेना चाहिए । पुस्तकके पात्र अशरीरी होते है, हमारी भावनाएँ ही हैं उनका शरीर । यो एक ही दम सामाजिक मनुजसे वे अतुलनीय हो जाते है। वे नही दीख सकते, क्योकि, जड़ शरीर उनके पास नहीं है । फिर भी, वे सतत रूपसे हमारे सामने हैं, हमारे भीतर है और अमर हैं, ठीक इसीलिए कि वे पंच - भूतजड़ित नहीं हैं । उनका अस्तित्व मानसिक है, उनका जीवन तर्क हमारी जीवन-नीति से भिन्न है, वह और ही तलपर हैं और हमारे मनोविज्ञानशास्त्रका बंधन उनपर नहीं है । हमारी संभव-संभवकी मर्यादा भी उनपर लागू नहीं है। वे हमारी ही कृति हों और है, पर हमसे कहीं चिरजीवी सूक्ष्मजीवी हैं। वे हमारी Rarefied वृत्तियाँ हैं जो हमारे भीतर घिरी नहीं हैं, बाहर भी नही हैं। देखा जाय, तो भीतर और बाहरसे हम ही उनमें घिरे हैं । साहित्यमें भूत हो सकते है और परियाँ भी हो सकती हैं। वहाँ चर-अचर, मानव-मानव, समाज और प्रकृति, देवता और दैत्य, सब हो ही नहीं सकते प्रत्युत सब आपसमें एकम-एक भी हो जा सकते है। गूँगी पृथ्वी अपनी सूनी, फटी, तप्त आँखोंसे ताकती रहकर काले रोषसे घुमड़ते हुए बिजलीसे भरे समानमेंसे झर झर ऑसू खींच ला सकती है और उस आदमीको अपनी अथाह करुणामें क्षमा कर सकती है जो इनमें भरती पीरको बस, वारिश कहकर विद्वान् बना बैठा है । वहाँ समन्दरकी मछली उड़कर सातवें आसमानमें बैठे परमात्मा के पास भी फरियाद ले जा सकती है और न सुननेपर घोषणा कर
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