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आलोचकके प्रति
सकती है कि परमात्मा दयाल नहीं है। यह सब कुछ हो सकता है। जो अपनी विज्ञानकी खोजमें सच्चा है, वह जानता है कि मानव परिमित है, पंगु है । वह जानता है कि जो 'मानवीय' है झूठ है, और झूठका सहारा लेकर ही बेचारा मानव सत्यकी ओर बढ़ सकता है । समस्त ज्ञान छल-ज्ञान है। यहाँ सत्याभिमुखता ही सत्य है। __ आशय मेरा, झूठकी बढ़ाईसे पाठकको आतंकित करना नहीं है। सीमित धारणाओं से उठाकर पाठकको असीममें पटक देने जैसी भी इच्छा नहीं है। हमारा वहाँ वश भी नहीं । उद्दिष्ट मात्र यह दिखाना है, कि हम अपनी ससीमता सत्यपर जब ओढ़ाते हैं तब मानो अपनी ही तुच्छता स्वीकार करते है । यदि हम असीमको और अरूपको स्वरूपवान् बनाकर ही हृदयंगम कर सकते है, तो अवश्य ऐसा करें। ऐसा करे बिना गति कहाँ ! पर, हमारा सब-कुछ मात्र इस प्रतीतिके पारस-स्पर्शसे स्वर्ण बन जाता है कि हममें अव्यक्त ही व्यक्त हो रहा है, हमारे ज्ञान-विज्ञानकी यात्रा अज्ञेयकी ओर है। यह प्रतीति नहीं तो हमारा सब-कुछ मिट्टी ही है। ___ इसीसे जिज्ञासा एक वस्तु है स्वप्न और । साहित्य मर्यादा-हीनता नहीं है, जिज्ञासा संशय नहीं है । पुस्तकके पात्रोंमें उनकी अपनी ही एक एक मर्यादा होती है। उनका तर्क उनके ही भीतर सनिहित रहता है। मनोविज्ञानकी किसी प्रवेशिकामेंसे उनका नियामक नियम नहीं निकाला जा सकता । यदि पुस्तकके चरित्र हमारी इस दुनियाके आदमियोंके अनुरूप चलते दीखते हैं तो इस हेतु नहीं कि वैसी अनुरूपता उनका लक्ष्य है, प्रत्युत, केवल इसलिए कि उस
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